"शिव-गीता" में भगवान् शंकर श्रीराम जी से कहते हैं------ "राम ! जीव पिता के द्वारा माता के पेट में शुक्र-शोणित के साथ मिलकर प्रथम मास में तरल तथा पेशियों से युक्त होकर दूसरे महीने में पिण्डाकार , तीसरे में हाथ-पैर से युक्त तथा सिर निकल आता है , यद्यपि सामान्य जीव पिता के शुक्र में पहले से रहता है , फिर भी चौथे महीने में विशेष चेतना का संचार होता है । तब बच्चा माता के पेट में घूमता है , पुत्र माता के दाहिनी कोख में , कन्या बायें कुक्षि में तथा नपुंसक मध्य में घूमता है । उसी मास उसके दांत, दाढ़ी , मूछों को छोड़कर शेष सभी अङ्ग-प्रत्यंग बन जाते हैं । यदि पेट में पुत्र हो , तो माता का स्थिर भाव , पुत्री हो तो चंचलता , नपुंसक हो तो मिश्रित भाव होता है । उस समय पति को चाहिये कि पत्नी की इच्छा की पूर्ति करे , माता के हृदय में जैसा क्रोध , लोभ प्रभृति दुर्भाव अथवा शांति , सन्तोष प्रभृति सद्भाव होता है , वैसी ही सन्तान होती है । जीव पांचवें मास में प्रबुद्ध होता है तथा गर्भ के दुःखों का अनुभव ...