पूजहि विप्र सकल गुण हीना, शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा
गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है :-
पूजहि विप्र सकल गुण हीना ।
शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा ।।
अर्थात:- तुलसीदास जी का कहना है कि ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से रहित हो, उसकी पूजा करनी ही चाहिए, और शूद्र चाहे कितना भी गुणी ज्ञानी हो, वो सम्माननीय हो सकता है, लेकिन कभी पूजनीय नही हो सकता ।।
भावार्थ :
दरअसल हम चीजो को समझते है उसके शब्दो के आधार पे हम भाव नही पकड़ पाते है । इसी लिए पहले के ये सारे शास्त्र गुरु परम्परा से पढ़ाये जाते थे वर्ना आप क्या का क्या अर्थ कर लेगे ।
यहाँ विप्र का अर्थ आत्मज्ञानी व्यक्ति से है जिसको आत्मा का बोध हो चुका है जो शरीर बोध से ऊपर उठ चुका है । ऐसा व्यक्ति अगर बाहरी रूप से मूर्ख जड़ सब गुणों से हीन भी दिखाई दे तो उसे पूजना चाहिए । जैसे हमारे यहाँ अच्छे अच्छे संतो में कुछ ऐसे हुए जो बाहरी रूप से विचित्र और जड़ मालूम पड़ते रहे । इसी प्रकार से जड़ भरत कर के प्राचीन संत है उन्हें नाम ही जड़ दे दिया गया क्योकि वो बाहरी रूप से जड़ मालूम पड़े तो कभी कभी ज्ञानी जन भी बाहरी आवरण से ऐसे मालूम हो सकते है।
शुद्र वेद प्रवीणा का अर्थ हुआ ऐसा व्यक्ति जो सारी किताबे पढ़ पढ़ के प्रवचन बांचता रहता है उसका मर्म नही समझता है । उसको उसका अनुभव ज्ञान नही है फिर भी वो उसका दम्भ करता है पांडित्य दिखाता रहता है ।
जैसे तुलसी जी कहते है :-
मैं कहता आंखन देखी तू कहता कागज की लेखी ।
यानी मैं अपने अनुभव से बोलता हूं तू सिर्फ किताबो का लिखा बांचता है ।
वर्ण व्यवस्था पहले जो थी वो अलग थी वर्ण का अर्थ होता है रंग। हम सामान्य बोल चाल की भाषा मे कहते भी है इसके रंग तो देखो यानी भाव तो देखो । पहले की जो वर्ण व्यवस्था थी वो भाव आधारित थी और बहुत से उदाहरण है जहाँ एक वर्ण से दूसरे वर्ण में लोग गए है । जैसे विश्वमित्र, सूत ऋषि इत्यादि । इसी प्रकार बहुत से सूत्रों के अर्थ गलत निकले गए है शब्द न पकड़े भाव पकड़े ।
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धर्माचार्य - मनुज देव भारद्वाज, मुम्बई (09814102666)
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पूजहि विप्र सकल गुण हीना ।
शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा ।।
अर्थात:- तुलसीदास जी का कहना है कि ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से रहित हो, उसकी पूजा करनी ही चाहिए, और शूद्र चाहे कितना भी गुणी ज्ञानी हो, वो सम्माननीय हो सकता है, लेकिन कभी पूजनीय नही हो सकता ।।
भावार्थ :
दरअसल हम चीजो को समझते है उसके शब्दो के आधार पे हम भाव नही पकड़ पाते है । इसी लिए पहले के ये सारे शास्त्र गुरु परम्परा से पढ़ाये जाते थे वर्ना आप क्या का क्या अर्थ कर लेगे ।
यहाँ विप्र का अर्थ आत्मज्ञानी व्यक्ति से है जिसको आत्मा का बोध हो चुका है जो शरीर बोध से ऊपर उठ चुका है । ऐसा व्यक्ति अगर बाहरी रूप से मूर्ख जड़ सब गुणों से हीन भी दिखाई दे तो उसे पूजना चाहिए । जैसे हमारे यहाँ अच्छे अच्छे संतो में कुछ ऐसे हुए जो बाहरी रूप से विचित्र और जड़ मालूम पड़ते रहे । इसी प्रकार से जड़ भरत कर के प्राचीन संत है उन्हें नाम ही जड़ दे दिया गया क्योकि वो बाहरी रूप से जड़ मालूम पड़े तो कभी कभी ज्ञानी जन भी बाहरी आवरण से ऐसे मालूम हो सकते है।
शुद्र वेद प्रवीणा का अर्थ हुआ ऐसा व्यक्ति जो सारी किताबे पढ़ पढ़ के प्रवचन बांचता रहता है उसका मर्म नही समझता है । उसको उसका अनुभव ज्ञान नही है फिर भी वो उसका दम्भ करता है पांडित्य दिखाता रहता है ।
जैसे तुलसी जी कहते है :-
मैं कहता आंखन देखी तू कहता कागज की लेखी ।
यानी मैं अपने अनुभव से बोलता हूं तू सिर्फ किताबो का लिखा बांचता है ।
वर्ण व्यवस्था पहले जो थी वो अलग थी वर्ण का अर्थ होता है रंग। हम सामान्य बोल चाल की भाषा मे कहते भी है इसके रंग तो देखो यानी भाव तो देखो । पहले की जो वर्ण व्यवस्था थी वो भाव आधारित थी और बहुत से उदाहरण है जहाँ एक वर्ण से दूसरे वर्ण में लोग गए है । जैसे विश्वमित्र, सूत ऋषि इत्यादि । इसी प्रकार बहुत से सूत्रों के अर्थ गलत निकले गए है शब्द न पकड़े भाव पकड़े ।
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धर्माचार्य - मनुज देव भारद्वाज, मुम्बई (09814102666)
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