कर्तृत्वविष्यक परस्पर विरुद्ध शास्त्रवचनों में संगति

कर्तृत्वविष्यक परस्पर विरुद्ध शास्त्रवचनों में संगति

     श्रीराम! कर्तृत्व(कर्ता होना) जड़ बुद्धिमें संभव नहीं होनेसे परिशेषन्याय तथा शास्त्र वचनोंसे आत्मामें ही सिद्ध होताहै, यह पूर्व निबंध में दर्शाया गयाहै। अब जिन बचनोंमें प्रकृति या बुद्धि आदि के कर्तृत्वका भान होताहै, उनकी संगति प्रस्तुतहै--

   अहंकारसे मिहित चित्तवाला "मैं कर्त्ता हूँ"ऐसा मानता है-अहंकारं विमूढात्मा कर्ताहमितिमन्यते(गी.३-२७)।इस प्रकार जो अकर्ता आत्माको जानता है, वही जानता है(गी(१३-२९)। इन वचनोंमें क्रमशः आत्माको कर्त्ता मानने वालेकी निंदा तथा अकर्ता मानने वालेकी प्रशंशा की गईहै।इसका तात्पर्य आत्मामें स्वाभाविक कर्तृत्व के सर्वथा अभाव अथवा औपाधिक या आरोपित कर्तृत्वके प्रतिपादन में नहीं, अपितु प्रकृतिके कार्य शरीरेन्द्रिय तथा बुद्धि से वियुक्त केवल आत्मामें शरीरादि से युक्त होने पर होनेवाला #अशुद्धकर्तृत्व नहीं है"इस अर्थके प्रशादनमें है।
क्योंकि-यहीं पर गीताजी में ही कहा है--सभी कर्मोंकी सिद्धिमें अधिष्ठान, कर्ता, विविध करण, विविध चेष्टाएँ,और दैव(ईश्वर या कर्म) ,इन पाँचोंके हेतु होने पर ही जो मनुष्य अकृतबुद्धि(अशुद्धबुद्धि) होनेके कारण कर्मों के होने में केवल आत्माको कर्त्ता समझताहै, वह दुष्टबुद्धि ठीक नहीं समझता--(

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः। पश्यत्यकृतबुद्धित्वात् न स पश्यति दुर्मतिः(गी.१८-१६)।इस श्लोकमें केवल अर्थात् अधिष्ठान (शरीर),करण(इन्द्रिय मन बुद्धि) आदि  साधनोंसे रहित केवल आत्माको शरीरादिसे मिलकर होने वाले प्राकृत अशुद्ध कर्मोंका कर्ता जो मानताहै, उसीकी निंदा की गईहै,और उसी को"ठीक न देखनेवाला "कहा गयाहै।इससे यह स्पष्ट हो जाताहै->शरीरेन्द्रीय मन आदि साधनोंसे युक्त होने परही आत्मा प्राकृत कर्मोंका कर्त्ता होताहै, केवल आत्मा नहीं। यह बात श्रुति भी कहतीहै->आत्मा(शरीर)इन्द्रिय मन से युक्त जीवात्मा भोक्ता(भोग कर्ता)होताहै, ऐसा मनीषी कहतेहैं--

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तः भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः(कठो.३-४)। जैसे तक्षा(बढ़ई) बसूला आदि साधनोंके होनेपर ही कुर्शी आदि वस्तुओंको बनाने वाला होताहै, साधन न होने पर बनाने वाला नहीं होता,->

यथा च तक्षोभयथा(ब्र.सू.-२-३-४०)।इस दृष्टान्त से भी यही बात सिद्ध होतींहै।इस दृष्टान्त से आत्मामें आरोपित कर्तृत्व को कदापि सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि तक्षा का कर्तृत्व न तो अज्ञान जन्य है, और न ही ज्ञानके द्वारा बाध्य है, यह केवल साधन सापेक्ष ही है। साधन सापेक्ष कर्ता का कर्तृत्व साधन न होने पर भी स्वीकार ही करना पड़ता है।जैसे शंकराचार्यजी स्वतः कहतेहैं-->-साधन सापेक्ष कर्ताका कर्तृत्व साधन न होने पर भी निवृत्त नहीं होता-न च साहाय्यापेक्षस्य कर्तु: कर्तृत्वं निवर्तते(ब्र.सू.२-३-३७)।

  मन बुद्धि करण (साधन)ही होतेहैं , कर्ता नहीं, यह बात  श्रीशंकराचार्यजी भी मानतेहैं-मन त्रिकाल विषयों के ज्ञान का करण(साधन)है--मनस्तु त्रिकालविषयोपलब्धिकरणम् ...दैवं चक्षु उच्यते(छा.उ.शां .भा.८-१२-५)।

यदि विज्ञान शब्द से कही गई बुद्धि ही कर्ता होगी तो शक्तिका विपर्यय होगा।अर्थात् बुद्धि की करण शक्ति की हानि होगी--यदि पुनः विज्ञानशब्दवाच्या बुद्धिरेव कर्त्री स्यात् ततः शक्तिविपर्ययः स्यात्।करण शक्तिर्बुद्धिर्हीयेत कर्तृशक्तिश्चापद्येत(ब्र. सू.२-३-३८)। जीवस्यैव निर्देशो न बुद्धे: (ब्र.सू.२-३-६)

इस प्रकार कर्तृत्व बुद्धि मन प्रकृति में नहीं आत्मामें ही सिद्ध होताहै।।जहाँ कर्तृत्व का निषेध है वहां केवल आत्माके कर्तृत्व का ही निषेध है।जहाँ कर्तृत्वका कथंन है वह स्वाभाविक ही है।।

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