मिश्र धातु विज्ञान
वैदिक विज्ञान
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#मिश्र धातु
(Alloy)
#परिचय - दो या अधिक धात्विक तत्वों के आंशिक या पूर्ण ठोस-विलयन को मिश्रातु या मिश्र धातु (Alloy) कहते हैं। इस्पात एक मिश्र धातु है। प्रायः मिश्र धातुओं के गुण उस मिश्रधातु को बनाने वाले संघटकों के गुणों से भिन्न होते हैं। इस्पात, लोहे की अपेक्षा अधिक मजबूत होता है। काँसा, पीतल, टाँका (सोल्डर) आदि मिश्रातु हैं।
मिश्रधातु वह वस्तु है जिसमें धातु के सब गुण होते हैं। इसमें दो या दो से अधिक धातुएँ, या धातु और अधातु होती है, जो पिघली हुई दशा में एक दूसरे से पूर्ण रूप से घुली रहती हैं और ठोस होने पर स्पष्ट परतों में अलग नहीं होती।"
#आधुनिक विज्ञान के मतानुसार - 19वीं शताब्दी में बहुत अधिक प्रयास हुआ, उसी का फल है कि अनेक उपयोगी कार्यों के लिये आज पाँच हजार से भी अधिक मिश्रधातुएँ उपलब्ध हैं और नई मिश्रधातुएँ तैयार करने के लिये नित्य नए नए प्रयोग किए जा रहे हैं। आज किसी विशेष उपयोग के लिये इच्छित गुणोंवाली मिश्रधातुएँ बनाई जाती है।
मिश्रधातु का अधिकतम उपयोग सिक्कों और आभूषणों के बनाने में होता था। ताँबे के सिक्कों में ताँबा, टिन और जस्ता क्रमश: 95/4 तथा 1 प्रतिशत रहते हैं। सन् 1920 तक इंग्लैंड में चाँदी के सिक्के, 'स्टर्लिंग' चाँदी के बनाए जाते थे, जिसमें चाँदी और ताँबा क्रमश: 92.5 और 7.5 प्रतिशत होते थे। अमरीका में चाँदी के सभी सिक्कों में चाँदी और ताँबा क्रमश: 90 तथा 10 प्रतिशत होते हैं। इंग्लैंड के सोने के सिक्कें में सोना और ताँबा क्रमश: 91.67 और 8.33 प्रतिशत होते हैं और अमरीका के सोने के सिक्कों में सोना 90 प्रतिशत तथा शेष अन्य धातुएँ, विशेषकर ताँबा रहता है। प्लैटिनयम, सोना तथा चाँदी के आभूषणों के रंगो में सुंदरता लाने के लिये उनको कठोर, मजबूत तथा टिकाऊ बनाने के लिये, या उन्हें सस्ते मूल्यों में विक्रय के लिये दूसरी धातुओं के साथ मिलाकर काम में लाते हैं।
#वैदिक ज्ञान जो आज भी आधुनिक ज्ञान से कही उन्नत था-
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-जस्ते का स्वर्ण रंग में बदलना-हम जानते हैं जस्ता (झ्त्दत्त्) शुल्व (तांबे) से तीन बार मिलाकर गरम किया जाए तो पीतल धातु बनती है, जो सुनहरी मिश्रधातु है। नागार्जुन कहते हैं-
क्रमेण कृत्वाम्बुधरेण रंजित:।
करोति शुल्वं त्रिपुटेन काञ्चनम्॥
(रसरत्नाकार-३)
धातुओं की जंगरोधी क्षमता-गोविन्दाचार्य ने धातुओं के जंगरोधन या क्षरण रोधी क्षमता का क्रम से वर्णन किया है। आज भी वही क्रम माना जाता है।
सुवर्ण रजतं ताम्रं तीक्ष्णवंग भुजङ्गमा:।
लोहकं षडि्वधं तच्च यथापूर्व तदक्षयम्॥
(रसार्णव-७-८९-१०)
अर्थात् धातुओं के अक्षय रहने का क्रम निम्न प्रकार से है- सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, सीसा, तथा लोहा। इसमें सोना सबसे ज्यादा अक्षय है।
तांबे से मथुर तुप्ता बनाना-
ताम्रदाह जलैर्योगे जायते
तुत्यकं शुभम्।
अर्थात् तांबे के साथ तेजाब का मिश्रण होता है तो कॉपर सल्फेट प्राप्त होता है।
#विशेष -
इतिहास में दमिश्क की जिन अपूर्व तलवारों की प्रसिद्धि है वे दक्षिण भारत के इस्पात से ही बनाई जाती थीं। आज से १५०० वर्ष पूर्व निर्मित और आज भी जंग से सर्वथा मुक्त दिल्ली के महरौली का स्तंभ भारतीय धातुकर्म की श्रेष्ठता का प्रतीक है जो आज भी वैज्ञानिकों के लिये रहस्य बना हुआ है। यही बात व्रिटिश म्यूजियम में रखे बिहार से प्राप्त चौथी शताब्दी की तांबे से बनी बुद्ध की २.१ मीटर ऊंची मूर्ति के बारे में भी कही जा सकती है। भारत में अत्यंत शुद्ध जस्ता एवं पीतल के उत्पादन भी प्रमाणित हैं।
खनिशास्त्र : अब कहां है
#treatise_of_maine
भूमिगत निधि और धातु रत्नों की जानकारी जिस शास्त्र में थी, वह खनिशास्त्र अथवा खन्यशास्त्र के नाम से राजकीय खनिसाधकों और खान विभाग के अध्यक्षों के लिए अनिवार्यत: अध्ययन का विषय था। हमें यह ज्ञात रहना चाहिये कि भारतीय राजधर्म की सफलता के लिए पठन-पाठन में इस शास्त्र का अभ्यास इसलिये जरूरी था कि शासक और राज्य कभी परमुखापेक्षी न हो। आत्म निर्भर शासक के लिए रुद्रदामन ने जिस कोश संचय की बात अपने जूनागढ़ अभिलेख में (14वीं पंक्ति में) की, वह मत चाणक्य के अर्थशास्त्र के मत से अलग नहीं है। चाणक्य भी कोश के लिए निरंतर कोशिश पर जोर देता है और कामंदक उसका अनुसरण करता है।
हालांकि मैंने चाणक्य के समय किसी खनिशास्त्र के प्रचलित होने की धारणा रखी है लेकिन इसकी पुष्टि 12वीं सदी के मानसोल्लास से होती है। बादामी का शासक सोमेश्वर दो बार इस शास्त्र का नाम लेता है : खनि शास्त्रेषु सर्वेषु लक्षणेन निरूप्यते।
भूलोकमल्ल सोमेश्वर ने इस शास्त्र के जिन उपयोगी विषयों का उल्लेख किया है, वे हैं :--
१. पृथ्वी पर मौजूद अलग-अलग खानों की जंतु विचरण आदि के आधार पर पहचान करना ।
२. खानों में मिलने वाले चांदी, सोना जैसे धातुओं का विवरण सत्यापित करना
३. मुक्ता, हीरा, वैडूर्य जैसे विविध रत्नों के क्षेत्र का वर्णन और उनके रूप भेद बताना।
इनके अतिरिक्त इस शास्त्र में निधि (दफीनों) की पहचान करने और उनको पाने के लिए उपाय भी लिखे गए थे। इनमें निधि पाने की सात युक्तियां तो सोमेश्वर ने यह कहकर लिखी है कि रूढ़ि या लौकिकी निधि की जानकारी जरूरी है : तत्रापि लक्ष्यते तज्ज्ञै: निधि: विध्युक्तमार्गत:।
कितना अच्छा होता कि एेसा कमाऊ खनिशास्त्र हमारे हाथ लग जाता ! हालांकि एेसे एक शास्त्र (नामा हा ए हिकमात) के होने का जिक्र अबुल फजल 'आइन ए अकबरी' में करता है लेकिन उसमें धातुओं का कोटिकरण ही रहा होगा क्योंकि उसे वह ज्ञान की पोथी कहता है। हां, ठक्कर फेरू ने अपनी संतानों के लिए 'द्रव्य परीक्षा' में केवल धातुओं आदि के परीक्षण ही बताए हैं, प्राप्ति के उपाय नहीं लिखे। अच्छा हुआ जो कुछ पुराणों ने अपनी कथाएं कम कर रत्न शास्त्र बचा लिया। (मेरी : वास्तु एवं शिला चयन)
हां, हम केवल नश्वर वस्तुओं का मोह त्यागने, दान करने और संसार की असारता के कथा-व्याख्यान में ही रुचि लेते रहे और एेसी ज्ञान की पुस्तकें हमारे बीच से कहां चली गई ? न हमें याद है और न ही शायद जरूरत समझी गई। मगर, अब भी सबसे ज्यादा जरूरत इसी की है और उनको भी है, जो यह सब माया प्रपंच त्याग की बात मंच पर बढ़-चढ़कर करते हैं.. :) यदि एेसी कोई जानकारी मिले तो जरूर शेयर कीजियेगा।
रूपसूत्र : सिक्कों की पहचान का लुप्त ग्रंथ
#अतीत_आख्यान
प्राचीन काल में जबकि अलग- अलग इलाकों में अलग-अलग सिक्कों का व्यवहार था, तब सिक्कों के मानक रूप, उनके ऊपर अंकित चिह्नों के अभिप्राय, उनके प्रचलन इलाकों और उन इलाकों की भौगोलिक स्थिति की जानकारी देने वाला एक ग्रंथ था : रूपसूत्र। आज यह ग्रंथ हम खो चुके हैं और इसकी जानकारी तक हमें नहीं होती यदि बुद्धघोष इसका उल्लेख नहीं करता।
'रूप' शब्द का प्रयोग मूर्ति के अर्थ में मध्यकाल में मिलता है क्योंकि सूत्रधार मंडन ने 1450ईस्वी में 'रूपमंडन' और सूत्रधार नाथा ने 1480 में "रूपाधिकार" नाम से मूर्तिकला पर ग्रंथ रचे। (वास्तु मंजरी : नाथाकृत, संपादक श्रीकृष्ण जुगनू) हालांकि अष्टाध्यायी में पाणिनि ने रूप शब्द का प्रयोग बताया है ( 5, 2, 120) तथा उससे बने 'रूप्य' शब्द का अभिप्राय 'सुंदर' एवं 'आहत' यानी मुहर युक्त बताया है। यही शब्द बाद में सिक्के के लिए चलन में आया क्योंकि अर्थशास्त्र ने रूप का अर्थ सिक्का ही लिया है और न केवल चांदी बल्कि तांबे के सिक्के के लिए भी यही प्रयोग किया है - 'रूप्यारूप' एवं 'ताम्ररूप'। पतंजलि ने 'रूपतके' शब्द का प्रयोग पाणिनि के एक सूत्र (1, 4, 52) के वार्त्तिक के प्रसंग में किया है जो कार्षापणों की जांच करता था। चाणक्य ने इस पदाधिकारी के लिए 'रूपदर्शक' शब्द का प्रयोग किया है।
प्राचीन काल में सिक्कों के ढालने व चलाने के लिए प्राविधिक मुद्राशास्त्र था जिसकी ओर संकेत लेखक बुद्धघोष ने अपनी "समंतपासादिका" में किया है। तब अजातशत्रु या बिंबिसार के 20 माषक का कार्षापणों का चलन था और उसे नीलकाहापण नाम बुद्धघोष ने दिया था। उस समय सिक्कों के निरीक्षण का काम बड़ी जिम्मेदारी से किया जाता था। एेसे दायित्वबोध की चर्चा के साथ ही कौटिल्य ने 'लक्षणाध्यक्ष' नामक टकसाल के अधिकारी का उल्लेख किया है। उसके साथ जांच का काम 'रूपदर्शक' करता था। वह जांचकर बार बार सिक्कों पर मुहर लगाता जाता था। एेसी लगभग एक दर्जन मुहरों वाले सिक्के अब तक मिल चुके हैं और अधिक संख्या वाले घिस-पिट चुके हैं।
इस सिक्कों पर लगाये गए प्रतीकों और चिह्नों का पूरा अर्थ होता था जिसे आज अनुमान से ही जाना गया है जबकि बुद्धघोष का कहना है कि "रूपसूत्र" में इसका विवरण मिल जाता था। इस ग्रंथ का अभ्यासी "हेरञ्जक" कहलाता था और वह चित्र-विचित्र सिक्के देखकर निम्न बातें कह सकता था :
1. कोई सिक्का किस गांव, निगम या राजधानी है ?
2. सिक्का किस टकसाल में ढाला गया है ?
3. उसका मूल्य व धातु क्या-क्या है ?
यही नहीं, हेरञ्जक यह भी बता सकता था कि सिक्कों वाला गांव, निगम आदि किस दिशा, पहाड़ी के शिखर या नदी के तट पर मौजूद है। ( Bhudhhistic studies p. 432)
है न रोचक किताब की बात। यह पुस्तक कीमती इसलिये थी कि उसके अभ्यास से सिक्कों की पहचान करते-करते आंखें खोने का भय नहीं रहता था। इसीलिये सर्राफ लोग भी उसका अभ्यास करते थे। क्या यह ग्रंथ तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्व विद्यालयों में पढ़ाया जाता था ?
मुझे तो मालूम नहीं मगर यह ग्रंथ एक आवश्यकता थी, यह एक प्रमाण की उपज था और इसी आवश्यता ने बाद में मुद्राशास्त्र को जन्म दिया लेकिन क्या हम वह "रूपसूत्र" लौटा सके ? आप इस कुंजी के बारे क्या जानते हैं, जरूर बताइयेगा।
जय-जय।
रसायन : भारतीयों की अप्रतिम देन
कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।
पिछले दिनो भूलोकमल्ल चालुक्य राज सोमेश्वर के 'मानसोल्लास' के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में 'कौतुक चिंतामणि' लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचण्डीश्वर तंत्र, दत्तात्रेय तंत आदि कई पुस्तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया।
मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-1 कुटी प्रवेश और 2 वात तप सहा रसायन। मानसोल्लास में शाल्मली कल्प गुटी, हस्तिकर्णी कल्प, गोरखमुण्डीकल्प, श्वेत पलाश कल्प, कुमारी कल्प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्यक्ति चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्त होता... जैसा कि सोमेश्वर ने कहा है - एवं रसायनं प्रोक्तमव्याधिकरणं नृणाम्। नृपाणां हितकामेन सोमेश्वर महीभुजा।। (मानसोल्लास, शिल्पशास्त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)
ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। कहा, ' कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्राय वनस्पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। (अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्करण भाग पहला, पेज 188-189)
है न अविश्वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा रसायन...।
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