शमी (खेजड़ी) धार्मिक महत्व और औषधीय प्रयोग

शमी (खेजड़ी) धार्मिक महत्व और औषधीय प्रयोग

शमी को छोकर, खेजड़ी, जंड, चौंकर, सफ़ेद कीकर, खार, सांगरी, सेमरु, सोमी, सवंदल ताम्बु आदि नामों से भारत भर में जाना जाता है। लैटिन में इसका नाम प्रोसोपिस सिनेरेरिया और प्रोसोपिस स्पाईसीजेरा है।
   *शमी का वृक्ष* राजस्थान,  गुजरात, सिंध, पंजाब और उत्तर प्रदेश में पाया जाता है। इसकी लकड़ी का प्रयोग यज्ञ-हवन आदि में होता है। देखने में यह बबूल के वृक्ष जैसा होता है। कुछ लोग इसे सफ़ेद कीकर भी कहते हैं। यह देश के सूखे हिस्सों की नमकीन-रेतीली भूमि में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। नए पौधे वृक्ष की जड़ों और बीजों से प्राप्त होते हैं। इसमें पीले-गुलाबी से पुष्प मार्च से मई महीने में आते हैं।
    यह प्रायः जंगलों में पाया जाता है और पूजन आदि के लिए मंदिरों के आस-पास भी लगाया जाता है। इस वृक्ष का तना छाल युक्त होता है। यह एक मध्यम आकार का एक कांटेदार वृक्ष है। इसकी उंचाई 5-9 मीटर तक हो सकती है। पत्ते घने और बबूल या इमली के समान दिखाई देते है। यह मटर जाति का वृक्ष है और इसमें फलियाँ लगती हैं जो कुछ जगहों पर खायीं भी जाती है।

   शमी को राजस्थान में कल्पवृक्ष कहते हैं। इसके पत्ते, फल, काष्ठ, जड़ें सभी कुछ लाभप्रद है। यह भूमि के अपरदन को रोकता है। इसकी जड़ें भूमि में बहुत अधिक गहरी (3 मीटर से भी अधिक) होती हैं व पानी की बहुत कमी हो जाने पर भी हरी रहती हैं। इसलिए सूखे के समय इसकी पत्तियाँ पशुओं के लिए चारे के काम आती हैं। इसकी फलियों से बनी सब्जी में 14-18 प्रतिशत प्रोटीन होती है। इसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं इसलिए अन्य पौधे जो इसके आस-पास उगते हैं, उनके विकास पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अतिरिक्त शमी के पेड़ के नीचे भूमि की उर्वरता भी अधिक होती है।

धार्मिक महत्व :-
संस्कृत शमी के कई नाम दिए गए है जैसे की। :-
अग्निगर्भा, ईशानी, पार्वती, सुपत्रा, मंगल्या, लक्ष्मी, रामपूजिता, हविर्गन्धा आदि। शमी का छोटा वृक्ष शमीर या शमरी कहलाता है तथा बड़ी शमी को सक्तुफला व शिवा कहा गया है। राजस्थान में शमीर को खेजड़ी और शमी को खेजड़ा कहा जाता है। इसकी लकड़ी यज्ञ के लिए बहुत ही उपयुक्त है और इसी कारण इसे अग्निगर्भा कहा गया है। शमी के लिए अग्निगर्भा नाम भागवत पुराण, मनुस्मृति, अभिज्ञान शकुंतलम और रघुवंश आदि में प्रयोग किया गया है। शमी के फल भीतर से भुरभुरे होते हैं अतः यह सक्तुफला कहते हैं। इसकी शाखाएं अल्प होती है और यह अल्पिका कहलाता है। इसके क्षार को हरिताल के साथ लगाने से बाल झड़ जाते हैं इसलिए इसे केशहन्त्री कहते हैं।
शमी एक पूजनीय वृक्ष है। इस पवित्र वृक्ष को माता पार्वती का साक्षात् रूप माना जाता है क्योंकि अग्नि के माध्यम से इसने कुछ काल तक भगवान शिव का तेज वहन किया। अतः यह वृक्ष शिवा, इशानी आदि नामों से जाना जाता है।
    आयुर्वेद के निघंटुओं में इसे केशों के लिए विनाशकारी, मादकता करने वाला कहा गया है।
      भगवान श्री राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पहले शमी के वृक्ष की पूजा की। शमी ने उन्हें आशीर्वाद दिया की आपकी ही विजय होगी। दशहरा जिसे विजयदशमी भी कहते हैं, के दिन शमी वृक्ष की पूजा की जाती है। इस दिन की जाने वाली इस विशेष पूजा-आराधना से व्यक्ति को कभी भी धन-धान्य का अभाव नहीं होता।
      महाभारत में ऐसा वर्णन मिलता है की अग्नि देव, महर्षि भृगु से भयभीत होकर शमी में प्रविष्ट हो गए। देवताओं द्वारा खोजे जाने पर वे शमी के गर्भ में रहते हुए मिले।
      पांडवों ने वनवास के समय अज्ञातवास शुरू होने से पहले अपने अस्त्र-शस्त्र शमी के वृक्ष पर छिपा दिए थे।
    महाकवि कालिदास रचित अभिज्ञान शाकुन्तलम् में ऋषि कण्व जब तीर्थ यात्रा से लौटते हैं ती वे आश्रम में सुनते है, जिस प्रकार शमी अग्नि को धारण किये हुए है उसी प्रकार आपकी कन्या ने प्राणियों के मंगल के लये दुष्यंत का तेज धारण किया है।

ऐसा माना जाता है, शमी वृक्ष की पूजा करने से शनि का प्रकोप और पीड़ा कम होती है। इसके लिए है, शमी के नीचे नियमित रूप से सरसों के तेल जलाना चाहिए।

शमी की पत्तों को ग्रन्थों में अग्नि जिह्वा कहा गया है। मांगलिक कार्यों में किये जाने वाले यज्ञों में शमी के पत्तों को यज्ञ में डाला जाता है इसलिए यह मांगल्या है। शमी के पत्ते शुद्ध हैं और पापों को दूर करते हैं। पीपल का वृक्ष पुरुष का प्रतीक है और इसके विवाह लोकधर्म में कदली, तुलसी और शमी से किये जाते हैं। शमी पापों को नष्ट करने वाली व शत्रुओं का विनाश करने वाली है। यह अमंगलों को दूर करने वाली और सिद्धियों को प्राप्त करने वाली है।

शमी के आयुर्वेदिक गुण
शमी के पत्ते स्वाद में कटु, तिक्त, कषाय व गुण में लघु,-रुक्ष है। स्वभाव से पत्ते शीत (फल उष्ण) और कटु विपाक है। यह शीत वीर्य है। वीर्य का अर्थ होता है, वह शक्ति जिससे द्रव्य काम करता है। आचार्यों ने इसे मुख्य रूप से दो ही प्रकार का माना है, उष्ण या शीत। शीत वीर्य औषधि के सेवन से मन प्रसन्न होता है। यह जीवनीय होती हैं। यह स्तम्भनकारक और रक्त तथा पित्त को साफ़ / निर्मल करने वाली होती हैं।
शमी का फल भारी, पित्तकारक, रूखे माने गए हैं। इनका सेवन मेधा और केशों का नाश करने वाला बताया गया है।

प्रधान कर्म :-
1. पित्तहर: द्रव्य जो पित्तदोष पित्तदोषनिवारक हो। antibilious
2. कफहर : द्रव्य जो कफ को कम करे।
3. विरेचन: द्रव्य जो पक्व अथवा अपक्व मल को पतला बनाकर अधोमार्ग से बाहर निकाल दे।
4. कुष्ठघ्न : द्रव्य जो त्वचा रोगों में लाभप्रद हो।
5. अर्शोघं : द्रव्य जो अर्श में लाभप्रद हो।
6. कृमिघ्न: द्रव्य जो कृमि को नष्ट कर दे।

शमी के पत्तों का चूर्ण 3-5 ग्राम की मात्रा में अकेले ही इन रोगों में लाभप्रद है:
1. अर्श (piles)
2. अतिसार
3. बालगृह
4. भ्रम
5. कृमि
6. कास
7. कुष्ठ
8. नेत्ररोग
9. रक्तपित्त
10. श्वास
11. विषविकार
शमी की छाल के काढ़े को 50-100 ml की मात्रा में फलों के चूर्ण को 3-6 ग्राम की मात्रा में लेते हैं।

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शमी के औषधीय उपयोग
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शमी के वृक्ष का धार्मिक महत्व तो है ही परन्तु यह एक औषधीय वृक्ष भी है। इसके काढ़े को बुखार में प्रयोग किया जाता है। इसके पत्तों को बाह्य रूप से पेस्ट रूप में लगाया जाता है। इसकी छाल कड़वी, कसैली, और कृमिनाशक होती है। इसे बुखार, त्वचा रोग, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, कृमि और वात-पित्त के प्रकोप से होने वाले रोगों में प्रयोग किया जाता है।

दाद-खाज, एक्जीमा :-
शमी की पत्तियों को गो मूत्र अथवा घी में पीस कर प्रभावित स्थानों पर बाह्य रूप से लेप किया जाता है। ऐसा 3-4 दिन तक लगातार किया जाता है।
#पीलिया :-
वृक्ष की छाल का काढ़ा पीलिया में दिया जाता है।

मवाद वाला फोड़ा :-
शमी की छाल का चूर्ण अथवा पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगाने से लाभ होता है।

प्रमेह रोग :-
शमी की कोपल को पांच ग्राम की मात्रा में चबा कर खाने के बाद गाय का दूध पीने से लाभ होता है। ऐसा 2-4 दिन तक किया जाता है।

गर्भपात रोकने के लिए :-
इसके फूलों और चीनी के पेस्ट को गर्भावस्था में खाया जाता है।

सफ़ेद पानी ( श्वेत प्रदर / लिकोरिया) :-
जड़ों की छाल का चूर्ण 1-3 ग्राम की मात्रा में 100 ml बकरी के दूध के अट्टह लिया जाता है।

धातु रोग, धातुपौष्टिक, स्तम्भन बढ़ाने के लिए :-
शमी की कोपलें 5-10 ग्राम की मात्रा में, बराबर मात्रा में मिश्री के साथ पानी डाल कर पीसकर लेने से लाभ होता है।

पित्त प्रकोप के रोग :-
शमी की कोपलें 5-10 ग्राम की मात्रा में, खांड के साथ लेकर ऊपर से गाय का दूध पियें।

आँखों के लिए ड्रॉप्स :-
पत्तों के रस को आँखों में डाला जाता है।

अपच :-
ताज़ा पत्तों को पीस कर, नींबू के रस के साथ खाया जाता है।

दांतों में दर्द :-
पत्तों को चबाने से दांत मजबूत होते हैं और दर्द में लाभ होता है।
बिच्छू के काटने पर
छाल का पेस्ट प्रभावित स्थान पर लगाते हैं।

कुछ सावधनियाँ / साइड-इफेक्ट्स :-
1. यह कार्डियक डिप्रेशन करता है।
2. यह रक्तचाप को कम करता है।
3. यह श्वसन को तेज करता है।

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