वेदों मे नारी का महत्व

|| वेदो मे नारी का महत्व ||

➡ वेदो में नारी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। स्त्रियो की शिक्षा – दिक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का सुन्दर द्रष्य हमारे वेदो में उपलब्ध है वैसा तो शायद ही कही पर बताया गया होगा। इस कारण से ही हमारी "।। भारतीय आर्य संस्कृति ।।" की परंपरा में वेदो को अधिक महत्त्व प्रदान किया है।

वेद नारी को सम्राज्ञी तक बनाने का अधिकार प्रदान करते है।
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यह सही है की मध्यकालीन युग में हमारे देश में पतनशील प्रवृतियो के विकासक्रम में सामाजिक संरचना हर – तरह से प्रदूषित होती गई। जिसके कारण उसका परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। किन्तु जो हमारे वैदिक युग में नारी का चरित्र – चित्रण क्या हुआ था और वेदो में नारी के प्रति जो आदर्श चित्रित किया हुआ है वह तो अलौकिक ही है। और यह कहना कतई गलत नही होगा कि पाश्चात्य और अरब संस्कृति के आगमन के साथ ही हमारे संस्कृति के उपर दबाव बनाना प्रारम्भ किया और उन्ही कारण से हमारे समाज में नारीयो के प्रति आदर्श छिन्न – भिन्न हो गया और इन्ही कारणो से वर्तमान समय पर्यन्त नारी का अस्तित्त्व प्रदूषित हो गया। और इसका परिणाम आज समग्र विश्व भुगत रहा है। हमारे वैदिक वाङ्गमय में नारीयो के प्रति जो आदर्श, मर्यादा, नियम, सहानुभुति- वात्सलय – दया जिस तरह से प्रतिपादित किया गया है वो विश्व के कदाचित किसी भी ग्रन्थो में वर्णित नही है। इसलिए आज हजारो वर्षो के बाद भी हमारी वैदिक संस्कृति सर्वोपरि विद्यमान हैं। आज भी द्रष्टान्त के रूप में हमारे वेदो का सहारा संपूर्ण विश्व में लिया जाता है।

आज से हजारो साल पहले नारी की स्थिति क्या थी यह सभी के लिए विचारणीय हो सकता है। नारी की स्थिति से समाज और देश के सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर का पता चलता हैं। यदि नारी को धर्म समाज और पुरुष के नियमो में बान्धकर रखा गया है तो उसकी स्थिति बदतर ही मानी जा सकती है।

इन उदाहरणो को देखकर प्राचीनता के आधार पर विवेकपूर्ण अध्ययन किया जाय तो यही पाएंगे की वैदिक, साहित्य, धर्मशास्त्र-शास्त्रीय ग्रन्थो में नारी की गरिमा का गान सर्वत्र गाया गया है।

     सबसे पहले यदि प्राचीन ग्रन्थो में नारी के लिए प्रयुक्त सभी शब्दो की व्युत्पत्ति पर ही विचार करें तो भी स्पष्ट हो जाएगा की मध्यनकालीन अन्धकार युग से पहले अपने यहाँ महिला के प्रति समाज शास्त्रियों का मनोभाव क्या था ?

उदाहरण के लिए महिला शब्द को ही ले, तो  मह+इल+आ = महिला।
मह का अर्थ श्रेष्ठ या पूजा है पूज्य श्रेष्ठ जो है वही महिला। लौकिक संस्कृत मे आदर देने के लिए मान्य शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह वस्तुत: वैदिक संस्कृति के "मेना" शब्द से बना है। ऋग्वेदमें "मेना" शब्द नारी अर्थ का वाचक है। और यास्क कृत निरुक्त (३-२१-२) में इसकी व्युत्पत्ति दी गई है।

मानयन्ति एन: (पुरुषाः)
निरुक्त ३-२१-२

अर्थात् – पुरुष आदर करते हैं इसलिए इन्हैं मेना कहते है।

इसी प्रकार स्त्री अर्थ का बोधक ‘ग्ना’ शब्द भी ऋग्वेद में आया है। जो देव पत्नियो के लिए प्रयुक्त हैं। किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ में यही शब्द मानवी के लिए प्रयुक्त हैं। जिनकी व्याख्या यास्क ने की हैं। ‘‘ग्ना गच्छन्ति एना:” पुरुष ही उसके पास जाता है। सम्मान पूर्वक बात करते हैं। उसे पुरुष से अनुनय की आवश्यक्ता नहीं पडती।

स्त्री शब्द को महर्षि पतंजलि के अनुसार “स्त्यास्यति अस्यां गर्भ इति स्त्री ”। उसके भीतर गर्भ की स्थिति होने से उसे स्त्री कहते है।

ये तो हुए शब्द।
यह यदि प्राचीन ग्रन्थो के प्रति यदि द्रष्टिगोचर करने पर तो स्पष्ट हो जाता है की नारी के व्यक्तित्त्व के प्रति सम्मान का भाव उनमें हैं। औंर उसे सदैव एक स्वतन्त्र चेतन सत्ता के रूप मे ही स्मरण कीया गया हैं। वेदो में तो नारी के गौरव का अनेक प्रकार से वर्णन है । एक स्थान पर नारी को ब्राह्मण कहा गया है।

“स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ”
(ऋग्वेद – ४-३३-१९)

इसका अभिप्राय यह है की वह स्वयं विदूषि होते हुए अपनी संतान को सुशिक्षित बनाती है। यही यज्ञो का संचालन करता है। वह ज्ञान विज्ञान में श्रेष्ठ होती है। अत: उसे यज्ञ में सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। उसी प्रकार नारी के ज्ञान विज्ञान में निपुण होने के कारण ब्राह्मण बताया गया है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के १५ वा सूक् तमें शची का गौरव वर्णन वर्णित है।

    अहं केतुरहं मूर्धाऽमुग्रा विवाचिनी।
ममेदनु कर्तुं पति: सहानाया उपाचरेत।
(ऋग्वेद – १०-१५९-२)

अर्थात- मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूं, मैं स्त्रियो में मूर्धन्य हूं। मैं उच्च कोटि की वक्ता हूं। मुझ विजयीनी की इच्छानुसार ही मेरा पति मेरा आचरण करता है।

वेदो मे नारी का महत्त्व
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वेदो मे नारी यज्ञीय हैं अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय है। वेदो मे नारी को ज्ञान देने वाली सुख- समृद्धि लाने वाली विशेष तेज वाली देवी विदुषी सरस्वती, इन्द्रीयाणि – उषा – जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर्श सूचक नाम से सम्बोधित किया गया है।

वेदो में स्त्रियो पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नही है। वेदो में तो स्त्रियों को सदा विजयिनी के रूप में प्रतिपादित किया गया हैं। और उनको हर काम मे सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है । वैदिक काल में नारी के द्वारा अध्ययन अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती हुई बताइ गई है। जैसे कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्धमें गई थी। कन्या को अपना पति स्वयं चुनने को भी अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते है।

हमारे वैदिक काल में तो अनेको ऋषिकाए वेद मन्त्रो की द्रष्टा है। अपाला – घोषा – सरस्वति – सर्पराज्ञी – सूर्या – सावित्री – अदिति – दाक्षायणि – लोपामुद्रा – विश्ववारा – आत्रेयी आदि ऋषिकाए वेदो के मन्त्रो की इष्टा बताइ गई है। 

स्त्री एवं पुरुष दोनो को शासक चुने जाने का समान अधिकार यजुर्वेद के २० अध्यायके १ मन्त्रमें बताया गया है। इससे ज्ञात होता है कि स्त्रियो की समभाव द्रष्टि में हमारे वेद अग्रणि है।
यजुर्वेद के १७ अध्याय के ४५ वे मन्त्र में बताया गया है की स्त्रियो की भी सेना हो – और इसका तात्पर्य यह है की स्त्रियों को भी युद्ध में भाग लेनेके लिए प्रोत्साहित करना।

वेदो में नारीयों की स्थिति
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वैदिक कालमें कोई भी धार्मिक कार्य नारी की उपस्थिति के बगैर शुरू नहीं होता था। उक्त काल में यज्ञ और धार्मिक प्रार्थना में यज्ञकर्ता तथा प्रार्थना कर्ता की पत्नी का होना आवश्यक माना जाता था।

"शतपथ ब्राह्मण" ग्रंथ में कहा गया है की नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। नारी के बिना नर का जीवन अधूरा है उस अधूरेपन को दूर करने और संसार को आगे चलाने के लिए नारी का होना  जरूरी है। नारी को वैदिक युग में देवी का दर्जा प्राप्त है।

"अथर्ववेद" में भी दूसरे अध्याय में कहा गया है की यह वधू पति के घर जाकर रानी बने और प्रकाशित हो।

  वेदो में नारी का गौरवमय स्थान इससे भी ज्ञात होता हे कि नारी को ही "घर" कहा गया है।

जायेदस्तं मधवन्त्सेदु योनिस्तदित्वा युक्ता हरयो वहन्तु ॥
-ऋग्वेद ३- ५३ -४

अर्थात-- घर घर नहीं हैं अपितु गृहिणी ही गृह है। गृहिणी के द्वारा ही गृह का अस्तित्त्व है। यही भाव एक संस्कृत सुभाषित में प्रतिपादित किया गया है।

न गृहं गृहमित्याहु:, गृहिणी गृह मुच्यते ॥
सु.र.भा. --- ।

और यही नही अपितु स्त्रीयो को तो सरस्वति का रूप भी हमारे वेदो में माना गया है।

प्रतितिष्ठ विराऽसि, विष्णुरिवेह सरस्वति । सिनिवालि प्र जायतां भगस्य सुमतावसत् ।       
                  अथर्ववेव – १४-२-१५

अर्थात -- हे नारी ! तुम यहाँ प्रतिष्ठित हों। तुम तेजस्विनि हों। हे सरस्वति ! तुम यहा विष्णु के तुल्य प्रतिष्ठित होना। हे सौभाग्यवति नारी ! तुम सन्तान को जन्म देना और सौभाग्य देवता की कृपा दृष्टि मे रहना।

स्त्री की प्रतिष्ठा अपने गुणों और योग्यता के आधार पर ही है। अत: कहा गया है –

स्वैर्दक्षेर्दक्षपितेह सीद देवानाऽसुम्ने बृहते रणाया ।
यजु. – १४/३

अर्थात-- हे नारी ! तुम अपनी योग्यता से ज्ञान का कोष होकर देवो के कल्याण तथा महान आनन्द के लिए घर में रहो।

वेदो की तरह ब्राह्मण ग्रन्थो में भी नारी का गौरव वर्णित हैं। यहाँ नारी को "सावित्री" कहा गया है।

“स्त्री – सावित्री”
जैमिनीय उप्. ब्रा. २५/१०/१७

"तैतरीय ब्राह्मण" मे इसे आत्मा का अर्द्धाश  बताया है।
अर्धो वा एष आत्मन: यत पत्नि ॥ (तैतरीय ब्राह्मण )

यही नही अपितु हमारे उपनिषदो मे भी नारी के सम्मान के विषय मे नारी के आदर्श चारित्य के विषय में बताया गया है।

य: सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो
भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि
न विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि
शरीरं य: सर्वाणि भूतान्यन्तरो
यमयत्येष ते आत्मान्त्याभ्यमृत:।
(बृहदारण्यक उपनिषद ३/७/१५)

अर्थात-- ये सब भूतो में रहता हुआ भी सबसे पृथक हैं। जिसे सारे भूत नहीं जानते। सारे भूत जिसका शरीर हैं। जो सब भूतो में स्थित होकर उनका नियन्त्रण् करता है । वह तेरी आत्मा है। वह सबसे व्याप्त है और किसी में भी विशेष अविशेष नही है।

हमारे धर्म शास्त्रकारो ने भी नारी के विषय में कहने को कुछ बाकि नही रखा है जैसे मनु महाराज ने "मनुस्मृति" में एक श्लोक में कहा है –

यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फला: क्रिया: ॥ मनु. ३-५६

अर्थात-- जहाँ नारीयों का सम्मान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। जहाँ इसका सम्मान नही होता, वहाँ प्रगति, उन्नति की सारी क्रियाए निष्फल हो जाती हैं।

एक अन्य स्थान में भी कहा गया है की यदि तुम चाहते हो की तुम्हारे कुल की उन्नति हों। यदि तुम्हे ललित कलाओं में रूचि हैं। यदि तुम अपना और अपने सन्तान का कल्याण चाहते हो तो अपनि कन्या को विद्या, धर्म और शील से युक्त करो।

उसी प्रकार हमारे पुराणो मे भी नारी के विषयमें बताया गया हैं । मार्कण्डेय पुराणमें सभी स्त्रीयो को आदिशक्ति का ही स्वरूप माना हैं।

विद्या समस्तास्तव देवि भेदा: ।
स्त्रिया: समस्ता सकला जगत्सु ॥

अर्थात-- समस्त स्त्रीया एवं समस्त विद्याए देवी का ही रूप हैं।

इस प्रकार से हमारे विविध शास्त्रो मे नारी की प्रधानता बताइ गयी है। जिसे हम अनदेखा नही कर सकते हमारे वैदिक वाङ्गमय से प्रारम्भ कर धर्म ग्रन्थो तथा साहित्यकारो ने भी अपनी कलम को इस विषय में रूकने नही दिया है।

अन्त में तो यही कहना सार्थक होगा की –

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रता वर्धते तर्द्धि सर्वदा ॥

जिस कुल में स्त्रिया दु:खी रहती हैं वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है। जहाँ वे दु:खी नहीं रहतीं उस कुल की वृद्धि होती है।

 

॥ सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ॥

अथर्ववेद  -- 2  अध्याय

●मनयन्ति---------॥ निरुक्त – ३/२१/२
●अहं केतुरहं -------  । ऋग्वेद – १०/१५९/१५
●जायेदस्तं ---------  । ऋग्वेद -  ३/५३/४
●न गृहं ------------  । सु.र.भा.
●प्रतितिष्ठ ---------- । अथर्ववेद – १४/२/१५
●सवैर्दक्षे -----------  । यजुर्वेद -   १४/३
●अर्थोवा ----------  । तैतरीय ब्राह्मण
●य: सवेषु ---------  । बृहदारण्यकोपनिषद् – ३/७/१७
●यत्र नार्यास्तु -----  । मनुस्मृति – ३/५६
●विद्या समस्ता ---- । मार्कण्डेय पुराण

⛳        आर्य वैदिक सत्य        ⛳

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