ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय ही सम्पूर्ण योग है
"ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय ही सम्पूर्ण योग है।"
जैसे समुद्र में जाकर सारी नदियाँ एक हो जाती हैं, सब काष्ठ अग्नि में जलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही सब हृदय भगवान की भक्ति में विलीन होकर एक रूप हो जाते हैं।
मुगल साम्राज्य का जब अन्त हुआ तो कुछ दिन पहले केन्द्र का नियन्त्रण ढीला पड़ गया था और प्रान्तों के सूबेदार आजाद होकर अपना अलग-अलग राज्य बना बैठे थे। यही स्वेच्छाचार उस सत्ता के पतन का कारण बना। ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय मन साम्राज्य की सूबेदार हैं यदि उन पर विवेक का नियन्त्रण न रहे वे स्वेच्छाचार बरतें तो समझना चाहिए जीवन साम्राज्य का अन्त मुगल साम्राज्य की तरह ही सन्निकट और सुनिश्चित है।
मन की तीसरी प्रवृत्ति है- ज्ञान। जानकारियों के आधार पर ही मनुष्य को सही सोचने और सही निष्कर्ष निकालने की क्षमता प्राप्त होती है। एकाँगी, अधूरा, अथवा उलटा ज्ञान होने से चिन्तन को सही दिशा नहीं मिलती और अविकसित मस्तिष्क बाल क्रीड़ाओं की तरह ऐसा कुछ सोचता और ऐसा कुछ करता रहता है जिसे उपहासास्पद ही कहा जाए।
भावात्मक, क्रियात्मक और ज्ञानात्मक त्रिविध प्रवृत्तियों को संतुलित, नियन्त्रित और व्यवस्थित रखने से ही मन की शक्ति का पूरा लाभ उठाया जा सकता है। अन्यथा वह अंतर्द्वंद्वों में ही उलझी हुई अपनी अद्भुत क्षमता को नष्ट भ्रष्ट करती रहती है और इतनी अद्भुत क्षमता से सम्पन्न होने पर भी मनुष्य उसके लाभों से वंचित रह जाता है।
आज ज्ञान और कर्म के विकास पर जो दिया जा रहा है पर भाव पक्ष को भुला ही दिया गया है। मनुष्य जड़ मशीन बनता चला जा रहा है। कम्प्यूटरों की तरह का ज्ञान और मशीनों की तरह का कर्म भौतिक साधन बढ़ा सकता है पर उससे मनुष्य की अन्तः चेतना को पोषण न मिल सकेगा। भाव स्तर यदि सूना, नीरस, शुष्क और निष्ठुर बना रहे तो भाव कोमलता के उस दिव्य आनन्द से सर्वथा वञ्चित ही रह जाना पड़ेगा जो आत्मा की भूख है। जड़ जीवन जीकर केवल इन्द्रियाँ तृप्ति की जा सकती है और अहंता के उन्माद की थोड़ी खुमारी अनुभव की जा सकती है। पर यदि भावना स्तर को सुविकसित करने की परिस्थितियाँ पैदा नहीं की गई तो संसार में सुख सामग्री कितनी ही बढ़ जाय आनन्द और उत्कृष्टता मर जायगी। केवल नर कंकाल ही जीवित रहेगा और उसमें प्रेत पिशाच का आसुरी अट्टहास ही देखने को मिलेगा ।
भाव स्तर की सरसता जिस प्रेम, दया, करुणा, ममता, स्नेह, आत्मीयता, सेवा आदि के रूप में विकसित देखी जाती है वह जीवन की श्रेष्ठतम मधुरिमा है। उसकी एक बूँद भी कहीं मिल जाय तो मनुष्य तो क्या छोटे जन्तुओं की आत्मा भी आनन्द विभोर हो जाती है।