पूजा-पद्धति

कौन कहता है कि भारत (हिन्दुओं) में सर्वमान्य शास्त्र नहीं, कोई निश्चित पूजा-पद्धति नहीं। वह यह गीता  है।

~ 'गीता ' १६/२३ में-
जो पुरुष उपर्युक्त शास्त्र विधि त्याग कर [ वह शास्त्र कोइ अन्य नहीं, 'इति गुह्यतमं शास्त्रम्' (१५/२०) गीता स्वयं पुर्णशास्त्र है, जिसे श्रीकृष्ण ने बताया है, उस विधि को त्याग कर ] अपनी इच्छा से बरतता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही प्राप्त होता है।

~ 'गीता' १८/६६ में है-
सारे धर्मों की चिंता छोड़ एक मेरी शरण में हो जा। अतः एक परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही धार्मिक है।

परमात्मा को प्राप्त महापुरुषों ने कैसे उस परमात्मा को पाया ? किस मार्ग से चले? वह मार्ग सदा एक ही है; उस मार्ग से चलना धर्म है।

~ ऐसा नहीं है कि हिन्दू-धर्म में कोई निश्चित क्रिया नहीं है। 'गीता' २/४१ में है-
'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दनः'
- अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है; वह है इन्द्रियों की चेष्टा और मन के व्यापार को संयमित कर आत्मा अर्थात् परात्पर ब्रह्म में प्रवाहित करना। (गीता, ४/२७)

~ 'गीता' ३/८ में भगवान कहते हैं- 'नियतं कुरु कर्म त्वम्'- अर्जुन! तू नियत कर्म कर।  वह नियत कर्म है क्या ?- इस पर 'गीता' ३/९ में है- यज्ञ को कार्यरूप देना कर्म है। इसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ किया जाता है, इसी लोक का बंधनकारी कर्म है।

कर्म तो 'मोक्ष्यसेsशुभात'- संसार-बन्धन से मुक्ति दिलाता है। इसके लिए 'यज्ञ' समझना होगा जिसे करने से 'कर्म' पूर्ण होता है।

'गीता , अध्याय ४ में योगेश्वर ने विधिवत् यज्ञ बताया कि- स्वाँस-प्रस्वाँस का यजन यज्ञ है। श्वाँस-प्रश्वाँस का निरोध कर प्राणायाम के परायण होना यज्ञ है। इस यज्ञ का परिणाम आत्मा का साक्षात्कार, अमृत की प्राप्ति।

~ योगविधि वाले यज्ञ में चराचर जगत् हवन-सामग्री के रूप में है। गीता का यज्ञ मानसिक है। इस यज्ञ को कार्यरूप देना ही कर्म है। इसमें कर्मकाण्डों का समर्थन नहीं, बल्कि कर्म की विशुद्ध और निश्चित विधि विद्यमान है।

विश्व में धर्म के नाम पर जो कुछ है, उसका सत्य-अंश 'गीता' से लिया गया है अन्यथा पैगम्बर मुहम्मद, ईसा, मूसा- इन सबने एक ईश्वर कहाँ से ढ़ूँढ लिया! सृष्टि के आदि से, करोड़ों वर्षों से जो चला आ रहा है, वही तथ्य उन्होंने भी दुहरा दिया।

ये विभिन्न धर्म इन महापुरुषों के पीछे सिमटा समाज ही तो है। लेकिन आत्मा की जागृति की साधना, ईश्वर के दर्शन, उसके स्पर्श और उसमें स्थिति की सम्पूर्ण साधना केवल 'गीता' में सुरक्षित है, संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं है, अन्य किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं है क्योंकि यह भगवान के श्रीमुख का सीधा प्रसारण है।

यह कथन भी अज्ञानतामूलक है कि *समय-समय पर संतों एवं धर्म-सुधारकों ने हिन्दू धर्म की विकृतियों को दूर करने का प्रयास किया जिससे नये-नये पन्थ बनते गये, जिनके विचारों में भिन्नता है। आप गीता के आलोक में देखेंगे तो भिन्नता कहीं भी नहीं है।

[ न्यायालयी टिप्पणी- हिन्दू कोई धर्म नहीं संस्कृति है, हिन्दुओं का कोई निश्चित धर्मशास्त्र नहीं है.... पर 'यथार्थ गीता' के प्रणेता, परमपुज्य श्री स्वामी जी के विचार का अंश, लोकहित में यथावत प्रस्तुत करने में हुयी किसी त्रुटि के लिये  क्षमा निवेदित ]

�� श्री सद्गुरुवे नम: ��
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'गीता' आज की प्रचलित भाषा में नहीं है लेकिन उसकी अनेको टीकाएं उपलब्ध हैं जिनमें पर्याप्त विभिन्नता है। जब कि श्रीकृष्ण ने दिया एक ही संदेश। इसका प्रत्यक्ष कारण है कि श्रीकृष्ण एक योगेश्वर थे उनके  मनोगत भावों को साधना से क्रमश: चलकर परमतत्त्व को विदित किया कोई विरला महापुरुष ही हमें 'गीता' के आशय को अक्षरश: बता/समझा/चला सकता है।
     ऐसे ही एक महापुरुष की वाणी और अन्त:प्रेरणा प्रदत्त व्याख्या ''यथार्थ गीता'' है, की ३-४ आवृत्ति अवश्य करें जो सभी संशयों का समाधान करती है। दूसरों को प्रेरित कर समाज की एकता एवं समानता/समरसता में अपना योगदान देकर हिन्दू ही नहीं अपितु राष्ट्र का सम्वर्धन में कदम बढ़ाएँ।

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