मनुष्य के छह दोष
(1)सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः
स चेत्यक्तुं न शक्यते ।
स सद्भिः सह कर्तव्यः
सतां संङ्गो हि बेषजम् ।।
जहां तक हो सके , इस संसार में संग का बिल्कुल परित्याग कर दो । यदि ऐसा न कर सको ,तो फिर सज्जनो का संग करो, क्योंकि वे ही संसार रोग की उत्तम औषधि है।
(2) सद्भावेन हरेन्मित्रं
सम्भ्रमेण तु बांधवान् ।
स्त्री भृत्यौ दान मानाभ्यां दक्षिण्येनेतराञ्जनान्।।
सद्भाव से मित्रों को , सम्मान से बंधुओं को , दान मान से स्त्री तथा सेवकों को और उदारता से अन्य को वश में लाना चाहिए।
(3) संतोषस्त्रिषु कर्तव्यः
स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्तव्यः
स्वाध्याये जपदानयोः।।
अपनी पत्नी, भोजन तथा धन-इन तीनों चीजों में सदा संतोष रखना चाहिए; और स्वाध्याय, जप तथा दान-इन तीनों चीजो में सर्वदा असंतुष्ट रहना चाहिए ।
(4) सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते ।।
संसार के सभी प्रकार के दानों में विद्यादान ही सर्वश्रेष्ठ है।
(5) षड्दोषाःशाम पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तंद्रा भयं क्रोधरो आलस्यं दिर्घसूत्रता।।
इस संसार में मनुष्य के छह दोष है
निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और काम को टालना, जिसे ऐश्वर्य की इच्छा हो, उसे इनका त्याग कर देना चाहिए।