दान पात्र
दान पात्र
चार प्रकार का दान होता है। एक तामस दान, एक राजस दान, एक सात्विक दान और एक दिव्य दान, गुणातीत दान। निर्गुण दान कहते हैं। अनेक नाम हैं। अर्थात् पैसा तो वही है सामान तो वही है लेकिन जिस प्रकार के पात्र में दान करोगे उसी प्रकार का फल मिलेगा। तुम्हारी भावना से कोई मतलब नहीं।
तुमने एक डकैत को दान कर दिया। और उसने उस पैसे से रिवाल्वर खरीदा और मर्डर कर दिया। तो तुमको नरक भोगना पड़ेगा। तुम ये नहीं कह कर बच सकते कि मुझे क्या मालूम था कि ये पैसे का दुरुपयोग करेगा। मालूम करना चाहिये था। ऐसा दान क्यों किया? तो जो तामसी व्यक्ति है उसको दान करोगे तो तामसी फल मिलेगा।
जो राजस व्यक्ति है उसको दान करोगे तो राजसी फल मिलेगा। जैसे हम संसार में दान करते हैं राजसी व्यक्ति को। अपनी लड़की की शादी में, किसी में, इसका फल राजस होगा। मरने के बाद पैसा मिलेगा आपको लेकिन राजसी भावना रहेगी।
हजारों व्यक्तियों में जो दान का फल है, वो एक शास्त्र वेद के ज्ञाता के दान करने का फल है, एक को। हजारों शास्त्र वेद के ज्ञाता को दान करे वो फल है एक उस व्यक्ति को दान करने का जो शास्त्र वेद का ज्ञान करा सके, उसमें भी हजारों अर्थज्ञों को दान करने का जो फल है वो फल है एक व्यक्ति को दान करने का जो प्रैक्टिकल हो, भगवान् में जिसके मन का लगाव हो रहा हो।...
जो साधना कर रहा है प्रयत्न कर रहा है। और अनन्त गुना फल उसके प्रति मिलेगा जिसने भगवत्प्राप्ति कर ली है। उसके प्रति दान करने पर। दान वही है एक रुपये का दान किया हमने, चाहे एक लाख का किया, चाहे सम्पूर्ण पृथ्वी का दान किया लेकिन जिस प्रकार के पात्र में हमदान करेंगे उसी प्रकार का फल मिलेगा।
तो दान करने में बहुत सावधानी बरतनी है। ऐसा नहीं है आँख मूँदकर दान करते जाओ। जिस पात्र में दान करोगे उसी प्रकार का फल मिलेगा।
मिथ्याभिमान-
किसी नास्तिक को देखकर यह मिथ्याभिमान भी न करना चाहिये की यह तो कुछ नहीं जानता ,में तो आगे बढ़ चुका हूँ। क्योंकि बड़े से बड़े घोर नास्तिक भी कभी-कभी इतना आगे बढ़ जाते है की बड़े-बड़े साधकों के भी कान काट लेते है। यह सब बिशेषकर पूर्व जन्म के संस्कारों के द्वारा ही हो जाता है।तुम किसी के संस्कारों को क्या जानो। अतएव सभी जीव गुप्त या प्रकट रूप से भगवत्कृपा पात्र है ऐसा समझकर किसी को भी घृणा की दृष्टी से नहीं देखना चाहिये; किन्तु इतना अवश्य है कि संग उन्ही का करना चाहिये जिनके द्वारा हमारी साधना में बृद्धि हो।
किसी भी दशा में तुम गोविन्द राधे।
हरि बिमुखों का संग करो ना बता दे।।
(राधा गोविन्द गीत- श्री कृपालु जी महाराज)
जिस प्रकार खाज को खुजलाने से वर्तमानकाल में सुखानुभूति तो होती है किंतु पुनः उसका कितना भयंकर स्वरूप हो जाता है, उसी प्रकार अभिलषित पदार्थों के देने से, क्षणभंगुर वासना की पूर्ति से, आनंद तो मिलता है किंतु वह आनंद सिमित होता है। कुछ क्षण के पश्चात् ही दूसरी वासना का विराट स्वरूप समक्ष आ जाता है। वास्तव में सांसारिक पदार्थों द्वारा इच्छापूर्ति होने पर लोभ उत्पन्न होता है-
'ज्यों प्रतिलाभ लोभ अधिकाई'
एवं उसकी पूर्ति होने पर क्रोध होता है। अतएव वासना के उत्पन्न होते ही दुःख स्वयं साकार होकर आ जाता है। उससे कोई भी भौतिकवादी नहीं बच सकता।
-श्री महाराज जी