जीवन की सर्वश्रेष्ठ विभूति ज्ञान है
जीवन की सर्वश्रेष्ठ विभूति ज्ञान है। ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। जिस प्रकार नेत्रहीन व्यक्ति के लिए इस संसार में जो उत्कृष्ठ है उसे देखना असंभव है, ठीक उसी प्रकार ज्ञान शून्य व्यक्ति परम तत्व ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकता।
ज्ञान केवल ईश्वर की शरणागति और महापुरुषों के संग रहने से प्राप्त होता है। रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः ।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
अर्थ- कोई व्यक्ति यदि रुपवान है, जवान है, ऊँचे कुल में पैदा हुआ है, लेकिन यदि वह विद्याहीन है, तो वह सुगंधरहित केसुडे के फूल की तरह शोभा नहीं देता है प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है, जैसी क्रिया होती है वैसी प्रतिक्रिया होती है, क्रिया कर्म स्वरूप ’पुरुषार्थ’ होती है और प्रतिक्रिया फल के रूप में ’भाग्य’ होती है। क्रिया व्यक्ति के अधीन होती है और प्रतिक्रिया प्रकृति के गुणों के अधीन होती है शरीर की समस्त इन्द्रियों की क्रिया मन के अधीन होती हैं, मन शरीर के साथ न होने पर कुछ भी समझना असंभव होता है।
मनुष्य के लिये समय से मूल्यवान अन्य कोई वस्तु नहीं होती है। भक्ति के पास आँखे नहीं होती है और ज्ञान के पास पैर नहीं होते हैं, भगवत पथ पर भक्ति ज्ञान की आँखो की सहायता से देख पाती है और ज्ञान भक्ति के पैरों की सहायता से चल पाता है। जब तक ज्ञान और भक्ति साथ-साथ नहीं चलते हैं तब तक भगवत पथ की दूरी तय नहीं हो सकती है। अधिकतर पुरुषों में ज्ञान की अधिकता प्रकट रहती है और अधिकतर स्त्रीयों में भक्ति की अधिकता प्रकट रहती है, जिस प्रकार स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं उसी प्रकार ज्ञान और भक्ति एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। इसीलिये भक्त की संगति मिले तो स्वयं को अभक्त समझते हुए भक्तों की संगति करनी चाहिये और यदि ज्ञानी की संगति मिले तो स्वयं को अज्ञानी समझते हुए ज्ञानीयों की संगति करनी चाहिये। मानसिक विकास के साथ साथ जब कोई खंड सुख से अखंड सुख की ओर बढ़ता है, तब उसे भौतिक सुख की अपेक्षा मानसिक सुख में ज्यादा रुचि हो जाती है।
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