भगवान श्री राम का अवसान

भगवान श्रीराम का प्रस्थान

अवतार का कार्य पूरा कर के प्रभु श्रीराम स्वयं की इच्छा से सरयू नदी में जा कर अन्तर्ध्यान हुए ।

यह रहस्य बहुत कम लोगों को मालूम है ,कि भगवान श्री राम का अवसान कैसे हुआ ?

दरअसल यह एक रहस्य है, जिस का उल्लेख सिर्फ पौराणिक धर्म ग्रंथों में ही मिलता है ।

पद्म पुराण के अनुसार भगवान श्रीराम सरयू नदी में स्वयं की इच्छा से गए और अवध-वासियों को चतुर्भुज रुप में दर्शन दे कर अन्तर्ध्यान हो गए ।

इस बारे में विभिन्न धर्म-ग्रंथों में विस्तार से वर्णन मिलता है । प्रभु श्रीराम के सरयू नदी में जाने से पहले माता सीता धरती में समा गईं थी ,और इस के बाद ही प्रभु पवित्र नदी सरयू में गए ।

पद्म पुराण में दर्ज एक कथा के अनुसार एक दिन कोई वृद्ध सन्त भगवान श्रीराम के दरबार में पहुँचे और उन से अकेले में चर्चा करने के लिए निवेदन किया ।

उस सन्त की बात सुनते ही प्रभु श्रीराम उन्हें एक कक्ष में ले गए । द्वार पर अपने छोटे भाई लक्ष्मण को खड़ा किया और कहा ,कि यदि उन की व उस सन्त की चर्चा को किसी ने भंग करने की कोशिश की तो उसे मृत्यु-दण्ड मिलेगा ।

लक्ष्मण जी ने अपने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा का पालन करते हुए दोनों को उस एकांतिक कक्ष में छोड़ दिया और खुद बाहर पहरा देने लगे ।

वह वृद्ध सन्त और कोई नहीं, बल्कि विष्णु लोक से आये हुए स्वयं काल देव थे जिन्हें प्रभु श्रीराम को यह बताने भेजा गया था ,कि उन का धरती पर समय पूरा हो चुका है ,और अब उन्हें अपने लोक वापस लौटना होगा ।

अभी उस सन्त और प्रभु श्री राम के बीच चर्चा चल ही रही थी ,कि अचानक द्वार पर ऋषि दुर्वासा जी आ गए । उन्होंने लक्ष्मण जी को भगवान श्रीराम से बात करने के लिए कक्ष के भीतर जाने के लिए निवेदन किया ।

लेकिन श्री राम की आज्ञा का पालन करते हुए लक्ष्मण ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया ।

ऋषि दुर्वासा हमेशा से ही अपने अत्यंत क्रोध के लिए जाने जाते हैं, जिस का नुकसान हर किसी को भुगतना पड़ता है, यहाँ तक कि स्वयं श्री राम को भी ।

लक्ष्मण जी के बार-बार मना करने पर भी ऋषि दुर्वासा अपनी बात पर अड़े रहे और अन्त में लक्ष्मण जी को कहा कि, यदि मुझे अभी श्री राम जी से मिलने नहीं दिया गया तो मैं श्री राम को शाप दे दूँगा ।

अब लक्ष्मण की चिन्ता और भी बढ़ गई । वे समझ नहीं पा रहे थे ,कि आखिर-कार अपने भाई की आज्ञा का पालन करें या ,फिर ऋषि के शाप से प्रभु श्री राम को बचायें ।

लक्ष्मण हमेशा से अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम जी की आज्ञा का पालन करते आए थे । पूरे रामायण काल में वे एक क्षण भी श्री राम से दूर नहीं रहे ।

यहाँ तक कि वनवास के समय भी वे उन के साथ ही रहे थे ,और अन्त में उन्हीं के साथ ही अयोध्या वापिस लौटे थे ।

ऋषि दुर्वासा द्वारा भगवान राम को शाप देने जैसी चेतावनी सुनकर लक्ष्मण भयभीत हो गए और फिर उन्होंने एक कठोर फैंसला लेना पड़ा । लक्ष्मण जी यह कभी नहीं चाहते थे ,कि उन के कारण उन के भ्राता को कोई किसी भी प्रकार की हानि पहुँचे ।

इसलिए उन्होंने स्वयं की बलि देने का फैंसला किया उन्होंने सोचा यदि वे ऋषि दुर्वासा को भीतर नहीं जाने देंगे तो प्रभु श्रीराम को ऋषि के शाप का सामना करना पड़ेगा ,और यदि वे श्रीराम की आज्ञा के विरुद्ध जायेंगे तो उन्हें मृत्यु दण्ड भुगतना होगा ।

लक्ष्मण जी ने मृत्यु दण्ड स्वीकार करना बेहतर समझा ।

वे आगे बढ़े और कमरे के भीतर चले गए । लक्ष्मण को चर्चा में बाधा डालते देख प्रभु श्री राम धर्म संकट में पड़ गए । अब एक तरफ अपने निर्णय से मजबूर थे ,और दूसरी तरफ भाई के प्यार से निस्सहाय थे ।

क्यो ,कि रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जायें पर वचन न जाई । उस समय श्रीराम ने अपने भाई को मृत्यु दण्ड देने के स्थान पर राज्य एवं देश से बाहर निकल जाने का कठोर आदेश दिया ।

उस युग में देश निकाला मिलना भी मृत्यु दण्ड के ही समान माना जाता था ।

लेकिन लक्ष्मण जी जो कभी अपने भाई श्रीराम के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते थे ! उन्होंने इस दुनिया को ही छोड़ने का निर्णय लिया । वे संसार से मुक्ति पाने की इच्छा से सरयू नदी के भीतर चले गए ।

लक्ष्मण जी के सरयू नदी में प्रवेश करते ही वे अनन्त शेष के अवतार में बदल गए और विष्णु लोक को चले गए ।

अपने भाई के चले जाने से प्रभु श्रीराम काफी उदास हो गए । जिस तरह राम के बिना लक्ष्मण नहीं, ठीक उसी तरह लक्ष्मण के बिना राम भी नहीं ।

प्रभु श्रीराम जी ने भी इस लोक से चले जाने का निर्णय लिया । उन्होंने अपना राज-पाट व पद अपने पुत्रों के साथ-साथ अपने भाईयों के पुत्रों को सौंप दिया और सरयू नदी की ओर चल दिए ।

वहाँ पहुँच कर प्रभु सरयू नदी के बिलकुल आंतरिक भूभाग तक चले गए और अचानक अन्तर्ध्यान हो गए ।

फिर कुछ देर बाद नदी के भीतर से श्री हरि विष्णु चतुर्भुज रुप में प्रकट हुए और उन्होंने अपने भक्तों को दर्शन दिए ।

इस प्रकार भगवान श्रीराम ने भी अपना मानवीय रुप त्यागकर अपने वास्तविक स्वरुप विष्णु का रुप धारण किया और वैकुण्ठ धाम को चले गए ।

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