सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण
नमो निष्कलरूपाय
नमो निष्कलतेज से।
नम: सकलनाथाय
नमस्ते सकलात्मने।।
नम: प्रणववाच्याय
नम: प्रणवलिंगिने।
नम: सृष्टयादिकों च
नम: पंचमुलाय ते।।
पञ्चब्रह्मस्वरूपाय
पंचकृत्याय ते नम:।
आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यं
अनन्तगुणशक्तये।।
सकलाकलरूपाय
शम्भवे गुरवे नम:।।
(शिवपुराण वि.सं,
10/28)
प्रभो! आप निष्कलरूप हैं।
आपको नमस्कार हैं।
आप निष्कल तेज से
प्रकाशित होते हैं।
आपको नमस्कार है।
आप सबके स्वामी हैं।
आपको नमस्कार हैं।
आप सर्वात्मा को नमस्कार
हैं अथवा सकल-स्वरुप आप
महेश्वर को नमस्कार है।
आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं।
आपको नमस्कार हैं।
आप प्रणवलिंगवाले हैं।
आपको नमस्कार है।
सृष्टि,पालन,संहार,तिरोभाव
और अनुग्रह करनेवाले आप
को नमस्कार है।
आदि देव भगवान शिव ही
समस्त सृष्टि के संहारक हैं।
भोलेनाथ संहारक होते हुए
भी बड़े दयालु हैं।
भक्तों के छोटे-छोटे पूजनों
से ही शिव प्रसन्न हो जाते हैं।
एक बार ब्रह्मा और भगवान
विष्णु ने शिवजी से पूछा कि
हे प्रभु सृष्टि आदि पांच कृत्यों
के लक्षण क्या हैं।
यह हमें विस्तार से समझाइये।
भगवान शिव ने कहा,
'मेरे कर्तव्यों को समझना
अत्यंत गहन हैं,फिरभी मैं
कृपापूर्वक आपको उनके
विषय में बता रहा हूं।
शिवजी कहते हैं-
सृष्टि,पालन,संहार,
तिरोभाव और अनुग्रह,
ये पांच ही मेरे जगत-संबंधी
कार्य है,जो नित्यसिद्ध है।
संसार की रचना का जो
आरम्भ हैं,उसी को सर्ग
या ‘सृष्टि’ कहते हैं।
मुझसे पालित होकर सृष्टि
का सुस्थिर रूप से रहना
ही उसकी ‘स्थिति’ है।
उसका विनाश ही ‘संहार’ है।
प्राणों के उत्क्रमण को
‘तिरोभाव’ कहते हैं।
इन सबसे छुटकारा मिल
जाना ही मेरा ‘अनुग्रह’ है।
इस प्रकार मेरे पांच कर्म हैं।
शिवजी कहते हैं - सृष्टि आदि
जो चार कृत्य हैं,वे संसार का
विस्तार करनेवाले हैं।
पांचवां कृत्य अनुग्रह मोक्ष
के लिए है।
वह सदा मुझ में ही अचल
भाव से स्थिर रहता है।
मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों
को पांचों भूतों में देखते हैं।
सृष्टि भूतल में,स्थिति जल में,
संहार अग्नि में,तिरोभाव वायु
में और अनुग्रह आकाश में
स्थित हैं।
पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती हैं।
आग सबको जला देती है।
वायु सबको एक स्थान से
दूसरे स्थान को ले जाती है
और आकाश सबको अनुगृहित
करता है।
विद्वान पुरुषों को यह विषय
इसी रूप में जानना चाहिये।
इन पांच कृत्यों का भार
वहन करने के लिये ही
मेरे पांच मुख हैं।
चार दिशाओं में चार मुख हैं
और इनके बीच में पांचवां
मुख है।
शिवजी कहते हैं -
मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूप
भूत मन्त्र का उपदेश किया है,
जो ॐकार के रूप में प्रसिद्ध है।
वह महामंगलकारी मन्त्र है।
सबसे पहले मेरे मुखसे ॐकार
(ॐ)प्रकट हुआ,जो मेरे स्वरूप
का बोध करानेवाला है।
ओंकार वाचक है
और मैं वाच्य हूं।
वह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है।
प्रतिदिन ओंकार का निरंतर
स्मरण करने से मेरा ही सदा
स्मरण होता है।
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार
का,पश्चिम मुख से अकार का,
पश्चिम मुखसे उकार का,दक्षिण
मुख से मकार का,पूर्ववर्ती मुख
से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख
से नाद का प्राकट्य हुआ।
इस प्रकार पांच अवयवों
से युक्त ओंकार का विस्तार
हुआ है।
इन सभी अवयवों से एकीभूत
होकर वह प्रणव ‘ॐ’ नामक
एक अक्षर हो गया।
शिवजी कहते हैं -
यह नाम-रूपात्मक सारा
जगत तथा वेद उत्पन्न स्त्री
-पुरुषवर्ग रूप दोनों कुल
इस प्रणव-मन्त्र से व्याप्त हैं।
यह मन्त्र शिव और शक्ति
दोनों का बोधक हैं।
इसी से पंचाक्षर-मन्त्र की
उत्पत्ति हुई है,जो मेरे सकल
रूप का बोधक है।
वह अकारादि क्रमसे और
मकारादि क्रम से क्रमश:
प्रकाश में आया है।
(‘ॐ नम: शिवाय’ यह
पंचाक्षर-मन्त्र है)।
इस पंचाक्षर-मन्त्र से मातृका
वर्ण प्रकट हुए हैं,जो पांच भेद
वाले हैं।
अ इ उ ऋ लू –
ये पांच मूलभूत स्वर हैं
तथा व्यंजन भी पांच !
पांच वर्णों से युक्त पांच
वर्गवाले हैं।
उसी से शिरोमंत्रसहित त्रिपदा
गायत्री का प्राकट्य हुआ है।
उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट
हुए है और उन वेदों से करोड़ों
मन्त्र निकले हैं।
उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न
कार्यों की सिद्धि होती है,
परन्तु इस प्रणव एवं पंचाक्षर
से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि
होती है।
इस मन्त्रसमुदाय से भोग
और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं।
मेरे सकल स्वरूप से सम्बन्ध
रखनेवाले सभी मन्त्र राज
साक्षात भोग प्रदान करनेवाले
और शुभकारक(मोक्षप्रद)हैं।
ब्रह्मा और विष्णु बोले –
प्रभो! आप निष्कलरूप हैं।
आपको नमस्कार हैं।
आप निष्कल तेज से
प्रकाशित होते हैं।
आपको नमस्कार है।
आप सबके स्वामी हैं।
आपको नमस्कार हैं।
आप सर्वात्मा को नमस्कार
हैं अथवा सकल-स्वरुप आप
महेश्वर को नमस्कार है।
आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं।
आपको नमस्कार हैं।
आप प्रणवलिंगवाले हैं।
आपको नमस्कार है।
सृष्टि,पालन,संहार,तिरोभाव
और अनुग्रह करनेवाले आप
को नमस्कार है।
नमो निष्कलरूपाय
नमो निष्कलतेज से।
नम: सकलनाथाय
नमस्ते सकलात्मने।।
नम: प्रणववाच्याय
नम: प्रणवलिंगिने।
नम: सृष्टयादिकों च
नम: पंचमुलाय ते।।
पञ्चब्रह्मस्वरूपाय
पंचकृत्याय ते नम:।
आत्मने ब्रह्मणे तुभ्यं
अनन्तगुणशक्तये।।
सकलाकलरूपाय
शम्भवे गुरवे नम:।।
(शिवपुराण वि.सं –
10/28)
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,
जयति पुण्य भूमि भारत,,
समस्त चराचर प्राणियों
एवं सकल विश्व का कल्याण
करो प्रभु !
सदा सर्वदा सुमङ्गल,
हर हर महादेव,
जय भवानी,
जय श्रीराम,