दोष पद का नहीं है
दोष पद का नहीं है
दोष तो उस पद पर विराजमान व्यक्ति का है जिसके इतने दायित्व है इतनी शक्तियां है और इतने अधिकार है कि उस पर पद पर बैठा व्यक्ति स्वयं को महत्वपूर्ण समझने लगता है
वह स्वयं को शासक समझने लगता है किंतु सत्य तो यही है कि वह मात्र सेवक है समाज का, इस सृष्टि का
उसे इतनी शक्तियां और अधिकार केवल इसलिए दिए जाते हैं कि वह अपने कर्तव्य की पूर्ति कर सकें ना कि अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति
जब अपने पद का उपयोग अपने अहं अपने सुख, अपनी सुविधा, अपने सामाजिक और सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए किया जाए, जब सब कुछ जानते हुए भी अपने पद की शक्तियों का धर्म सत्य और सद्भावना को अनसुना किया जाए
जब उचित और अनुचित के बीच विभाजन करना भूलकर अपने पद के परिधि को दुर्ग में परिवर्तित किया जाए
जब गुरु का अपमान किया जाने लगे उसका निरादर किया जाने लगे
अपने भीतर की निर्मलता को बाहरी दिखावे की प्रभुता से कुचल दिया जाए
यह मार्ग पतन का ही है
जो व्यक्ति अपनी भूल ना स्वीकार कर उसका प्रायश्चित ना करें उस पर अटल रहे उसका विनाश सुनिश्चित है
किंतु इसका उपाय क्या है
या तो यथार्थ के पूर्व से उसे गिरने दिया जाए और गिरने के पश्चात वह स्वयं उठकर अपनी स्थिति का आभास करें और दूसरा उपाय यह है कि उसे गिरने से पूर्व उसे उसके पतन का आभास करा दिया जाए
किंतु यह दोनों विकल्प तभी संभव है जब व्यक्ति में थोड़ा सा भी विवेक शेष हो
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धर्माचार्य - मनुज देव भारद्वाज, मुम्बई (09814102666)
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