एकाग्मता ही धर्म का आधार है
अलगपन और भिन्नता ही अधर्म का मूल है और एकागमता ही धर्म का आधार है
मनुष्य का हृदय सुख की आशाओं से, सत्ता और संपत्ति की इच्छाओं से घिरा रहता है किंतु सामान्य रूप से मनुष्य अपने माता पिता संतानों भाई बहनों या पत्नी के साथ उचित व्यवहार ही करता है कोई अन्याय नहीं करता वह सुख और संपत्ति को समान भागों में बांट कर भोगता है क्योंकि वह जानता है कि उसके सुख का आधार है उसका परिवार उसके सुख का कारण है उसका परिवार मनुष्य यह भी जानता है कि उसका शौक समाज से आता है किंतु वह समाज के साथ अन्याय कर लेता है समाज का शोषण कर लेता है क्योंकि वह समाज को अपने सुख का कारण नहीं मानता वह समाज को अपने सुख का साधन मानता है भेद है तो कारण और साधन में किंतु मनुष्य को जब यह बोध हो जाता है कि सारा संसार परमात्मा का ही रूप है प्रत्येक जीव परमात्मा का ही अंश है अर्थात कोई पराया नहीं सब अपने हैं यह सारा संसार अपना है ही है अपना ही परिवार है तो क्रोध का कोई कारण ही नहीं रह जाता सारे संघर्ष सारा बहुत सारा प्रतिशोध नष्ट हो जाता है अंतर में परमात्मा और संसार में एकागमता यही धर्म का मूल सिद्धांत है
जीवन की ये यात्रा क्रोध से बोध की यात्रा है, भिन्नता से एकाग्मता की यात्रा है
इस भूमि पर वास करने वाले मनुष्य जब तक धर्म को अपने मन में जीवित रखेंगे तब तक कोई अधर्म नहीं होगा कोई भी शक्ति तुम्हारा शोषण नहीं कर पाएगी
ॐ सह नाववतु
ॐ ईश्वर हमार रक्षण करें,
सह नौ भुनक्तु ।
हम सब मिलकर सुख भोगे,
सह वीर्यं करवावहै ।
एक दूसरे के लाभ हेतु प्रयास करें,
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
हम सब का जीवन तेज से भर जाए,
परस्पर कोई द्वेष या ईर्ष्या ना हो
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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धर्माचार्य - मनुज देव भारद्वाज, मुम्बई (09814102666)
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