लोभ स्वार्थ अहंकार यह देवत्व के विरुद्ध होता है
देवत्व को आरोपित नहीं किया जा सकता
देवत्व अंतर्निहित होता है
देवत्व निस्वार्थ होता है
अग्नि वायु जल नक्षत्र सूर्य चंद्र पृथ्वी आकाश
ऐसा कोई भी देवता नहीं जो केवल अपने लिए अपनी उन्नति के लिए जीवित हो
उनकी महत्ता भी यही है कि वह दूसरों के कल्याण के लिए अपनी-अपनी भूमिका निभाते
इंद्र अग्नि काम, यह सभी देवता है प्रमाण की स्वार्थी होने के पश्चात प्रत्येक देवता का नाश अवश्य होता है उनका पतन अवश्य होता है
क्योंकि लोभ स्वार्थ अहंकार यह देवत्व के विरुद्ध होता है
देवताओं का भी उत्थान और पतन होता है
ऐसे में एक ऋषि को भी स्वयं देवता को श्राप देने का अधिकार हो जाता है
देवताओं का देवत्व उनके कर्म उनके स्वभाव पर निर्भर करता है
यदि ऐसा नहीं होता तो दैवी शक्तियों से संपन्न देवराज के पद के अधिकारी हो जाते
प्रहलाद बली क्या इनके जैसे शक्तिशाली देते देवराज पद पर विराजमान नहीं होते?