विद्या प्राप्ति के चार उपाय

विद्या प्राप्ति के चार उपाय --

"चतुर्भिश्च प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति--आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति" ।। महाभाष्य १.१.१ पस्पशाह्निक।।

(१.)  आगमकाल अर्थात् अध्ययन करने से,
(२.) स्वाध्यायकाल अर्थात् अभ्यास करने से,
(३.) प्रवचनकाल अर्थात् दूसरों को बताने से,
(४.) व्यवहारकाल अर्थात् लोक में व्यवहार से।

(१.) आगमकाल—
“आगमकाल” उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य पढाने वाले से सावधान होकर ध्यान देके विद्यादि पदार्थ प्राप्त कर सकें ।

(२.) स्वाध्यायकाल–
“स्वाध्यायकाल” उसको कहते हैं कि जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित की हों, उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक-ठीक हृदय में दृढ कर सकें ।

(३.) प्रवचनकाल–
“प्रवचनकाल” उसको कहते हैं कि जिससे दूसरों को प्रीति से विद्याओं पढा सकना ।

(४.) व्यवहारकाल—
“व्यवहारकाल” उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है, तब यह करना यह न करना, वही ठीक-ठीक सिद्ध होके वैसा ही आचरण करना हो सके, ये चार प्रकार हैं ।

अन्य चार प्रकार विद्याप्राप्ति के—
(१.) श्रवण
(२.) मनन,
(३.) निदिध्यासन,
(४.) साक्षात्कार ।

(१.) श्रवण—
“श्रवण” उसको कहते हैं कि आत्मा मन के, और मन श्रोत्र इन्द्रिय के साथ यथावत् युक्त करके अध्यापक के मुख से जो-जो अर्थ और सम्बन्ध के प्रकाश करने हारे शब्द निकले, उनको श्रोत्र से मन और मन से आत्मा के एकत्र करते जाना ।

(२.) मनन–
“मनन” उसको कहते हैं कि जो-जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध आत्मा में एकत्र हुए हैं, उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर विचार करना कि कौन शब्द किस अर्थ के साथ और कौन अर्थ किस शब्द के साथ और कौन सम्बन्ध किस-किस शब्द और अर्थ के साथ सम्बन्ध अर्थात् मेल रखता और इनके मेल से किस प्रयोजन की सिद्धि और उलटे होने में क्या-क्या हानि होती है, इत्यादि ।

(३.) निदिध्यासन—
“निदिध्यासन” उसको कहते हैं कि जो-जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध सुने-विचारे हैं, वे ठीक-ठीक हैं वा नहीं, इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ निश्चय करना ।

(४.) साक्षात्कार—
“साक्षात्कार” उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुने-विचारे और निश्चय किए हैं, उनको यथावत् ज्ञान और क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना आदि विद्या की प्राप्ति के साधन हैं ।

शिष्य की ज्ञान प्राप्ति में अनेक कारक सहायक होते हैं। वह कुछ ज्ञान गुरु से सीखता है उस पर स्वयं विचार करता है, इस प्रकार अपनी बुद्धि से समझकर कुछ ज्ञान सीखता है। कुछ ज्ञान बडा होते-2 समय के अनुभव के साथ इसे होता जाता है तथा कुछ ज्ञान वह अपने सहपाठियों से प्राप्त करता है।

“आचार्यात्पादमात्ते पादं शिष्यः स्वमेधया ।
कालेन पादमादत्ते पादं सब्रह्मचारिभिः ।।”

अर्थः—-एक योग्य शिष्य अपने विषय के ज्ञान का एक चौथाई भाग गुरु से प्राप्त करता है। एक चौथाई अपनी बुद्धि से समझकर सीखता है। अगला एक चौथाई भाग समयानुसार सीखता है तथा शेष एक चौथाई अपने सहपाठियों से सीखता है।

Popular posts from this blog

पूजहि विप्र सकल गुण हीना, शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा

भरद्वाज-भारद्वाज वंश/गोत्र परिचय __मनुज देव भारद्वाज धर्माचार्य मुम्बई

११५ ऋषियों के नाम,जो कि हमारा गोत्र भी है