माँ सरस्वती का निवास: शारदा देश (कश्मीर) ‘सर्वज्ञ पीठ’
माँ सरस्वती का निवास: शारदा देश कश्मीर और ‘सर्वज्ञ पीठ’ की धरोहर
कश्मीर में जिस मंदिर के द्वार कभी आदि शंकर के लिए खुले थे आज उसके भग्नावशेष ही बचे हैं। हम प्रतिवर्ष वसंत पंचमी और नवरात्र में माँ सरस्वती की वंदना शंकराचार्य द्वारा रची गई स्तुति से करते हैं लेकिन उस सर्वज्ञ पीठ को भूल गए हैं जिसपर कभी आदि शंकर विराजे थे।
देश की चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित करने तथा आचार्य गौड़पाद में महाविष्णु के दर्शन करने के पश्चात आदि शंकर को माँ सरस्वती की कृपा प्राप्त हुई थी। विद्यारण्य कृत ‘शंकर दिग्विजय’ ग्रंथ में वर्णित कथा के अनुसार शंकर अपने शिष्यों के साथ गंगा किनारे बैठे थे तभी किसी ने समाचार दिया कि विश्व में जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप में भारत और भारत में काश्मीर सबसे प्रसिद्ध स्थान है जहाँ शारदा देवी का वास है। उस क्षेत्र में माँ शारदा को समर्पित एक मंदिर है जिसके चार द्वार हैं। मंदिर के भीतर ‘सर्वज्ञ पीठ’ है। उस पीठ पर वही आसीन हो सकता है जो ‘सर्वज्ञ’ अर्थात सबसे बड़ा ज्ञानी हो।
उस समय माँ शारदा के उस मंदिर के चार द्वार थे जो चारों दिशाओं में खुलते थे। पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से आए विद्वानों के लिए तीन द्वार खुल चुके थे किंतु दक्षिण दिशा की ओर से कोई विद्वान आया नहीं था इसलिए वह द्वार बंद था। आदि शंकर ने जब यह सुना तो वे शारदा मंदिर के सर्वज्ञ पीठ के दक्षिणी द्वार के लिए निकल पड़े।
शंकर जब काश्मीर पहुँचे तब वहाँ उन्हें अनेक विद्वानों ने घेर लिया। उन विद्वानों में न्याय दर्शन, सांख्य दर्शन, बौद्ध एवं जैनी मतावलंबी समेत कई विषयों के ज्ञाता थे। शंकर ने सभी को अपनी तर्कशक्ति और मेधा से परास्त किया तत्पश्चात मंदिर का दक्षिणी द्वार खुला और आदि शंकर पद्मपाद का हाथ पकड़े हुए सर्वज्ञ पीठ की ओर बढ़ चले। तभी माँ सरस्वती ने शंकर की परीक्षा लेने के लिए उनसे कहा, “तुम अपवित्र हो। एक सन्यासी होकर भी काम विद्या सीखने के लिए तुमने एक स्त्री संग संभोग किया था। इसलिए तुम सर्वज्ञ पीठ पर नहीं बैठ सकते।”
तब शंकर से कहा, “माँ मैंने जन्म से लेकर आजतक इस शरीर द्वारा कोई पाप नहीं किया। दूसरे शरीर द्वारा किए गए कर्मों का प्रभाव मेरे इस शरीर नहीं पड़ता।” यह सुनकर माँ शारदा शांत हो गईं और आदि शंकर सर्वज्ञ पीठ पर विराजमान हुए। माँ सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त कर शंकर की कीर्ति चहुँओर फैली और वे शंकराचार्य कहलाए। आदि शंकराचार्य ने माँ सरस्वती की वंदना में स्तुति की रचना की जो आज प्रत्येक छात्र की वाणी को अलंकृत करती है- “नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुर वासिनी, त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे।”
कश्मीर में जिस मंदिर के द्वार कभी आदि शंकर के लिए खुले थे आज उसके भग्नावशेष ही बचे हैं। हम प्रतिवर्ष वसंत पंचमी और नवरात्र में माँ सरस्वती की वंदना शंकराचार्य द्वारा रची गई स्तुति से करते हैं लेकिन उस सर्वज्ञ पीठ को भूल गए हैं जिसपर कभी आदि शंकर विराजे थे। शारदा पीठ देवी के 18 महाशक्ति पीठों में से एक है। आज वह शारदा पीठ पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर में है और वहाँ जाने की अनुमति किसी को नहीं है।
कश्मीर के रहने वाले एक मुसलमान डॉ अयाज़ रसूल नाज़की अपने रिश्तेदारों से मिलने पाक अधिकृत कश्मीर स्थित मुज़फ्फ़राबाद कई बार गए। अंतिम बार जब वे 2007 में गए थे तब उन्होंने शारदा पीठ जाने की ठानी। डॉ नाज़की की माँ के पूर्वज हिन्दू थे इसलिए वे अपनी जड़ों को खोजने शारदा पीठ गए थे। गत 60 वर्षों में वे पहले और अंतिम भारतीय कश्मीरी थे जो शारदा पीठ गए थे।
एक समय ऐसा भी था जब बैसाखी पर कश्मीरी पंडित और पूरे भारत से लोग तीर्थाटन करने शारदा पीठ जाते थे। आज वह शारदा पीठ उस क्षेत्र में है जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहता है। आज़ाद कश्मीर मीरपुर मुज़फ्फ़राबाद का क्षेत्र है जो जम्मू कश्मीर राज्य का अंग है।
मुज़फ्फ़राबाद झेलम और किशनगंगा नदियों के संगम पर बसा छोटा सा नगर है। किशनगंगा के तट पर ही शारदा तहसील में शारदा गाँव स्थित है। वहाँ आज शारदा विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई पड़ते हैं। कनिष्क के राज में यह समूचे सेंट्रल एशिया का सबसे बड़ा ज्ञान का केंद्र था। वस्तुतः कश्मीर की ख्याति ही ‘शारदा प्रदेश’ के नाम से थी। आर्थर लेवलिन बैशम ने अपनी पुस्तक ‘वंडर दैट वाज़ इण्डिया’ में लिखा है कि बच्चे अपने उपनयन संस्कार के समय ‘कश्मीर गच्छामि’ कहते थे जिसका अर्थ था कि अब वे उच्च शिक्षा हेतु कश्मीर जाने वाले हैं।
कश्मीर के शंकराचार्य के समकक्ष आदर प्राप्त आचार्य अभिनवगुप्त ने लिखा है कि कश्मीर में स्थान-स्थान पर ऋषियों की कुटियाँ थीं और पग-पग पर भगवान शिव का वास था।
शारदा पीठ का उल्लेख सर्वप्रथम नीलमत पुराण में मिलता है। इसके अतिरिक्त कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि सम्राट ललितादित्य के समय में शारदा विश्वविद्यालय में बंगाल के गौड़ समुदाय के लोग शारदा पीठ आते थे। संस्कृत समूचे कश्मीर की भाषा थी और शारदा विश्वविद्यालय में 14 विषयों की पढ़ाई होती थी। शारदा विश्वविद्यालय में ही देवनागरी से भिन्न शारदा लिपि का जन्म हुआ था।
डॉ अयाज़ रसूल नाज़की ने Cultural Heritage of Kashmiri Pandits नामक पुस्तक में प्रकाशित अपने लेख में ‘सारिका’ या ‘शारदा’ की लोक प्रचलित कहानी लिखी है। हुआ यह कि एक बार कश्मीर में रहने वालों की वाणी चली गई। कोई न कुछ बोल सकता था न व्यक्त कर सकता था। आवाज़ चली जाने से लोग दुखी और परेशान थे। तब सबने मिलकर हरि पर्वत पहाड़ी पर जाने का निश्चय किया। वहाँ पहुँच कर सबने भगवान से प्रार्थना की। तभी एक बड़ी सी मैना आई और उस चिड़िया ने अपनी चोंच से पत्थरों पर खोए हुए अक्षरों को लिखना प्रारंभ किया। सबने मिलकर उन अक्षरों को बोलकर पढ़ा, और इस प्रकार सबकी वाणी लौट आई।
संभव है कि वाग्देवी सरस्वती ने कश्मीरी लिपि शारदा को इसी प्रकार प्रकट किया हो लेकिन शेष भारत ने शारदा देश, लिपि, आदि शंकर की सर्वज्ञ पीठ और देवी की शक्ति पीठ को भी लगभग भुला दिया है।
✍🏻यशार्क पांडेय
कश्मीर के म्लेच्छ आक्रमण-
(१) १४४० ई.पू. में-राजतरङ्गिणी, तरंग १-
प्रपौत्रः शकुनेस्तस्य भूपतेः प्रपितृव्यजः। अथावहदशोकाख्यः सत्यसंघो वसुन्धराम्॥१०१॥
यः शान्तवृजिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम्। शुष्कलेत्रवितस्तात्रौ तस्तार स्तूपमण्डलैः॥१०२॥
धर्मारण्य विहारान्तः वितस्तात्र पुरेऽभवत्। यत्कृतं चैत्यमुत्सेधावधिप्राप्त्यक्षमेक्षणम्॥१०३॥
स षण्नवत्या गेहानां लक्षैर्लक्ष्मीसमुज्ज्वलैः। गरीयसीं पुरीं श्रीमांश्चक्रे श्रीनगरीं नृपः॥१०४॥----
म्लेच्छैः संछादिते देशे स तदुच्छित्तये नृपः। तपः सन्तोषिताल्लेभे भूतेशात्सुकृती सुतम्॥१०७॥
सोऽथ भूभृज्जलौकोऽभूद्भूलोक सुरनायकः। यो यशः सुधया शुद्धं व्यधाद्ब्रह्माण्डमण्डलम्॥१०८॥---
तत्काल प्रबल प्रेद्ध बौद्ध वादि समूहजित्। अवधूतोऽभवत् सिद्धस्तस्य ज्ञानोपदेशकृत्॥११२॥----
स रुद्ध वसुधान् म्लेच्छान्निर्वास्या खर्व विक्रमः। जिगाय जैत्रयात्राभिर्महीमर्णवमेखलाम्॥११५॥
ते यत्रोज्झटितास्तेन म्लेच्छाश्छादितमण्डलाः। स्थानमुज्झटडिम्बं तज्जनैरद्यापि गद्यते॥११६॥
गोनन्द वंश का ४८वां राजा अशोक या धर्माशोक (१४४८-१४०० ई.पू.) था। वह बौद्ध हो गया और कई विहार बनवाये। वहां के बौद्धों ने मध्य एशिया के म्लेच्छों को बुला कर उनसे आक्रमण करवाया। म्लेच्छ शासन होने पर गोनन्द वन में भाग गया। शिव की पूजा से उसे जलौक नामक पुत्र हुआ जिसने राज्य को पुनः जीता (१४००-१३४४ ई.पू.) और वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना की। म्लेच्छों का जहां समूल नाश किया था उसका नाम उज्झट-डिम्ब पड़ा। उसने ९६ लाख घरों का श्रीनगर नगर बसाया।
(२) जलौक के पुत्र दामोदर के ५० वर्ष राज्य के बाद हुष्क, जुष्क, कनिष्क ने ६० वर्ष राज्य किया (१२९४-१२३४ ई.पू.)। उनसे पुनः अभिमन्यु (१२३४-११८२ ई.पू.) ने राज्य ले लिया।
(३) (पण्डित गवास लाल -कश्मीर का संक्षिप्त इतिहास से)-कल्हण के समय ११४८ ई. के बाद १२९५ ई. तक कश्मीर में हिन्दू शासन रहा। १२९५ से १३२४-२५ ई तक राजा सिंहदेव का शासन था। उस समय स्वात से शमीर, तिब्बत से रेन्छन शाह तथा दर्दिस्तान से लन्कर चक आये जिनको राजा ने आश्रय दिया। उनको सरकारी नौकरी तथा जागीर दी। इनलोगों ने १३२२ ई. में चंगेज खान के वंशज जुल्फी कादिर खान को आक्रमण के लिये निमन्त्रित किया। उसने ७०,००० घुड़सवारों के साथ आक्रमण किया और इन गद्दारों की मदद से लाकॊं लोगों की हत्या की तथा ५०,००० ब्राह्मणों को गुलाम बना कर ले गये। इनमें कई देवसर की बर्फ में मारे गये। राजा सिंहदेव किश्तवार भाग गये तथा उनके सेनापति रामचन्द गगनजिर भागे। शत्रुओं के जाने के बाद रामचन्द ने वापस राज्य पर कब्जा करने की कोशिश की पर तिब्बत से आये जागीरदार रेन्छन ने रामचन्द की हत्या कर उसकी पुत्री से विवाह किया और राजा बन गया। उसने इस्लाम स्वीकार कर सदरुद्दीन नाम से राजा बना। २५ वर्ष राज्य के बाद सिंहदेव के भाई उदयन देव ने १३२७ ई. में पुनः राज्य पर कब्जा किया। १३४३ ई. में उसके मरने पर उसके मन्त्री शाह मिर्जा ने कब्जा किया और शमसुद्दीन के नाम से राजा बना। १३४७ में उसके मरने पर उसके लड़के जमशेद को हरा कर उसका छोटा भाई अल्लाउद्दीन अली शेर राजा बना। उसके लड़के शाह उद्दीन (१३६०-१३७८) ने फिरोजशाह तुगलक की अधीनता स्वीकार की। उसके बाद १५५४ ई. तक उसके वंशज राज करते रहे। उसके बाद सिंहदेव के समय दरद से आये लंकर चक के वंशजों ने १५८८ ई तक शासन किया। उसके बाद १७५३ ई. तक मुगलों के सूबेदारों ने शासन किया। मुहम्मद शाह दुर्रानी के आक्रमण के बाद कश्मीर १८१९ ई. तक अफगान सूबेदारों के अधीन रहा।
(४) हिन्दू राज्य-१८१९ ई. में यह सिख राजाओं के सूबेदारों के अधीन रहा। इनमें १८४१-४६ तक मुस्लिम सूबेदार थे। अंग्रेजों द्वारा सिखों की पराजय के बाद महाराजा गुलाब सिंह ने १६-३-१८४६ ई. में कश्मीर अंग्रेजों से खरीद लिया। उनके पुत्र रणवीर सिंह के नाम पर रणवीर पेनल कोड है। उनके पुत्र प्रताप सिंह तथा उनके पुत्र हरिसिंह १९४७ तक राजा रहे। वे स्वाधीनता के बाद भारत में मिलना चाहते थे। पर भारत के प्रधानमन्त्री नेहरू ने कहा कि कश्मीर (जम्मू, लद्दाख नहीं) मुस्लिम बहुल है अतः राजा हरि सिंह का विचार कश्मीर के लोगों की इच्छा नहीं है। केवल शेख अब्दुल्ला ही कश्मीर के प्रतिनिधि हो सकते हैं (उनसे नेहरू का रक्त सम्बन्ध कहा जाता है)। उसके बाद शेख अब्दुल्ला का परिवार और उनके दामाद गुलाम मुहम्मद मुख्यमन्त्री बने। बीच में उनके समर्थक मुफ्ती मुहम्मद सईद भी मुख्य मन्त्री बने। उनकी पुत्री अभी मुख्य मन्त्री हैं। नेहरू ने बिना जनमत संग्राह् के कश्मीर का विलय अस्वीकार किया जो बाद में पाकिस्तान की मांग हुयी। भारतीय संविधान मेंएक अलग धारा ३७० जोड़ी गयी जिसके अनुसार वहां के राज प्रमुख या संविधान सभा की सहमति से ही राष्ट्रपति कोई निर्णय ले सकते है। राज प्रमुख पद समाप्त होने पर यह धारा स्वतः समाप्त होनी थी, पर कांग्रेस की इच्छा के कारण यह अभी तक भारत में पूरी तरह नहीं मिल पाया है। १९ जनवरी १९९० को यहां प्रायः २०,००० हिन्दुओं की हत्या कर बाकी ७ लाख को कश्मीर से भगा दिया गया जो अभी तक अपने ही देश में प्रवासी बने हुये हैं।