वरदान
वरदान पाने के लिए भक्त तपस्या कर अपने आराध्य के दर्शन पा लेता है
कितनी शक्ति है ऐसे तप में
यदि भक्त चाहे तो उसी क्षण अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकता है मोक्ष प्राप्त कर सकता है
किंतु वह इस विकल्प के बारे में सोचता ही नहीं
यदि उसे यह बोध हो जाए कि अपना मनोवांछित वरदान प्राप्त कर वह क्या खो रहा है तो उसे अपने वरदान की निरर्थक ता का बोध होगा उसकी अन आवश्यकता का बोध होगा
तो ही वह समझेगा कि उसका मन वांछित वरदान कितना महत्त्व हीन है किंतु
वह केवल अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु मांगा गया वरदान अपने स्वार्थ अपने वर्चस्व के लिए अपनी महत्वता के लिए स्थापित किया गया वरदान है
महत्वता केवल उसी वरदान के लिए है जो सृष्टि कल्याण के लिए मांगी जाए
अन्यथा वरदान संकुचित होकर अभिशाप बन जाता है
किंतु सृष्टि कल्याण के लिए वरदान मांगता ही कौन है
और कितने भक्तों को इस का बोध होता है कि उन्होने क्या खोया और क्या पाया