श्री हनुमानजी के व्यक्तित्व के अनुकरणीय गुण
श्री हनुमानजी के व्यक्तित्व के अनुकरणीय गुण
१- लक्ष्य के प्रति अनुराग = "होइहिं काजु मोहिं हरष बिसेखी"
२- ईश्वर के प्रति अनन्य समर्पण = "चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा"
३- परमावश्यक जिज्ञासा/कौतूहल= "कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर"
४- निर्धारित समयांतर्गत लक्ष्य प्राप्ति हेतु त्वरा = "जिमि अमोघ रघुपति कर बाना"
५- लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता = "राम काज कीन्हें बिनु, मोहि कहाँ विश्राम"
६- सर्वोच्च प्राथमिकता= "राम काजु करि फिरि मैं आवौं"
७- सत्यनिष्ठा= "सत्य कहउँ मोहि जान दे माई"
८- परीक्षा में प्रश्नपत्र हल करने की जबर्दस्त तैयारी= "जस जस सुरसा बदन बढ़ावा, तासु दून कपि रूप दिखावा।"
९- त्वरित मेधा या बुद्धि तत्परता= "सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा, अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।"
१०- धीरमति अर्थात सफलता के उपराँत अहंकार शून्यता= "माँगा विदा ताहि सिरु नावा"
११- छद्मधारी मायावियों की पहचान= "तासु कपट कपि तुरतहिं चीन्हा।"
१२- निर्भयता= "तापर धाइ चढ़ेउ भय त्यागे"
१३- पथच्युत करने वाले 'उद्दाम आकर्षणों ' से विचलित हुए बिना लक्ष्य साधना= "नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।"
१४- अभियान के आरंभ में ही शत्रु की शक्ति का पूर्व आकलन= "कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अति बल गर्जहीं"
१५- पूर्व योजना एवं रणनीति बनाकर अभियान हेतु प्रयाण= "पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार"
१६- ईष्टदेव के स्मरण के साथ अभियान का श्रीगणेश= "लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी/ हृदय राखि कोसलपुर राजा/ पैठा नगर सुमिरि भगवाना"
१७- शत्रु दल के लोगों को मुरीद बना लेना= "तात मोर अति पुन्य बहूता, देखेउँ नयन राम कर दूता"
१८- अभियान के प्रति गंभीरता= "मंदिर मंदिर प्रति कर सोधा"
१९- शरीर की सुरक्षातंत्र में सहायक तुलसी की महत्ता को सम्मान= "नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ"
२०- विलक्षण तर्क-शक्ति= "इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा/ मन महुँ तरक करै कपि लागा"
२१- सज्जनों से परिचय करने की उत्सुकता तथा पहल= ""इहि सन हठि करिहउँ पहिचानी, साधु ते होइ ध कारज हानी"
२२- सामाजिक सम्बन्धों की व्यवहारिकता के निर्वहन में परम निष्णात= "करि प्रनाम पूँछी कुसलाई"
२३- शत्रु पक्ष की पूर्ण परीक्षा से आश्वस्त होने के बाद ही उसके समक्ष अभियान का प्रयोजन प्रस्तुत करना= "तब हनुमंत कही सब, राम कथा निज नाम"
२४- विनम्रता की पराकाष्ठा = कहहुँ कवन मैं परम कुलीना/कपि चंचल सबहीं विधि हीना/अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर"
२५- परपीड़ा के प्रति संवेदनशील= "परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन"
२६- विश्वास अर्जित करने की कला= "कपि के वचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास"
२७- निराशा के सागर में डूबते हुए लोगों के लिए जलयान जैसे संबल= "भयहु तात मो कहँ जलजाना"
२८- मर्यादाओं के प्रति सजगता= "अबहिं मातु मैं जाउँ लेवाई, प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई"
२९- आशा का संचरण करने वाले आश्वस्ति प्रदाता= "कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा, निसिचर मारि तोहिं लै जैंहहिं"
३०- संदेह/ संशय-हर्ता= "सीता मन भरोस तब भयऊ"
३१- राम कृपा के आशीष से अभिभूत= "करहुँ बहुत रघुनायक छोहू/ निर्भर प्रेम मगन हनुमाना"
३२- कृतज्ञता की अभिव्यक्ति= "अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता"
३३- आसुरी शक्तियों के प्रति निर्भीकता, तथा दूसरों के सुख का खयाल= "तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं, जौ तुम्ह सुख मानहु मन माँही।"
३४- बल और बुद्धि का अद्भुत समुच्चय= "राम काजु सब करिहहु, तुम्ह बल बुद्धि निधान/ देखि बुद्धि बल निपुन कपि, कहेउ जानकी जाहु"
३५- आसुरी समस्याओं के यथोचित उपचार में विशेषज्ञता= "कछु मारेसि कछु मर्देसि, कछु मिलएसि धरि धुर/ कटकटाइ गर्जा अरु धावा"
३६- समाजिक मर्यादाओं में अपार आस्था= "जौं न ब्रह्मसर मानऊँ, महिमा मिटई अपार "
३७- महान लक्ष्य की साधना में तुच्छ अपमान भी सह्य= "प्रभु कारज लगि कपिहिं बधावा/ मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा"
३८- खतरनाक समस्याओं के बीचो-बीच भी आश्चर्यजनक निर्भयता= "जिमि अहिगन महुँ गरुण असंका"
३९- शालीन शब्दों के साथ शत्रु/ विपक्षी का मान मर्दन, एवं स्वयं के बचाव की तार्किक प्रस्तुति= "तुम्ह से सठन सिखावनु दाता/ जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे"
४०- विपक्षी को भी शुभचिंतक जैसा परामर्श= "सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी, बिमुख राम त्राता नहिं कोपी"
४१- दूरगामी परिणामों के त्रिकालदर्शी = "बचन सुनत कपि मन मुसुकाना, भइ सहाय सारद मैं जाना"
४२- स्वजनों/साधुजनों की सुरक्षा= "जारा नगरु निमिष एक माहीं, एक विभीषन कर गृह नाहीं"
४३- अतुलनीय पराक्रम की उपलब्धियों के उपराँत अहंकारी होने की जगह विनम्रता से झुक जाने का दुर्लभतम गुण= "जनक सुता के आगे, ठाढ़ भयउँ कर जोरि"
४४- आसुरी शक्तियों का स्थाई निर्मूलन " चलत महाधुनि गर्जेसि भारी, गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी"
४५- प्रशस्ति के बाद विनम्रता में उत्तरोत्तर वृद्धि= "सो सब तव प्रताप रघुराई, नाथ न कछु मोरि प्रभुताई"
४६- लक्ष्य साधना के पथ में व्यवधानकारी शक्तियों का मुखभंजनकरी प्रत्युत्तर "शठं शाठ्यं समाचरेत" के नियमान्तर्गत= "अति बिसाल तरु एक उपारा, बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा"
४७- निष्ठापूर्वक अहर्निश सेवा की भावना= "नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी, सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी"
४८- प्रभु प्रेम के अतिरिक्त किसी पारितोषिक की अभिलाषा नहीं= "पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए/ बार बार प्रभु चहइ उठावा, प्रेम मगन तेहि उठब न भावा"
४९- अनन्य भक्ति के विलक्षण उदाहरण श्री हनुमान जी
तभी तो प्रभु श्रीराम जी के मुखारविंद से निकला- "भरत भाई कपि से उरिन हम नाहीं...!"